निर्मला जैन
छह जनवरी को ‘अनंतर’ में ओम थानवी ने गैर-मामूली समय की चिंता में दिल्ली में घटित बर्बर कांड के संदर्भ में लेखक समुदाय की ‘उदासीनता’ को लक्ष्य कर क्षोभ व्यक्त करते हुए जैसे उनका आह्वान किया, उस पर ध्यान देना वाजिब होगा। पर अगर मन्नू भंडारी ने रुआंसी मन:स्थिति में आपको बार-बार फोन किया या कृष्णा जी ने विगलित होकर आपके माध्यम से अपनी वेदना पाठकों तक पहुंचाई, इससे यह निष्कर्ष निकालना कि बाकी सब इस हादसे से अछूते या उदासीन बैठे थे, कहां तक उचित है, कहा नहीं जा सकता। कुछ चेहरे पहचान के दायरे में आ गए तो यह नहीं समझना चाहिए कि उस पूरे कोलाहल और भीड़ में युवा पीढ़ी के ऐसे और रचनाकार मौजूद ही नहीं रहे होंगे, जिन्होंने अपने नाम और मौजूदगी को दर्ज कराना गैर-जरूरी या गैर-मुनासिब समझा होगा। सचाई तो यह है कि ऐसी खौफनाक घटना के बाद तात्कालिक प्रतिक्रिया तो अवसन्न और अवाक रह जाने की होती है। पर उस पूरे दौर में शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा, जिसकी चेतना को इस कांड ने झकझोरा न हो या जो लगातार ऐसी घटनाओं के निदान के बारे में परिचितों के बीच चर्चा न कर रहा हो, या फिर दूरदर्शन से चिपका न बैठा हो। इतना समय बीत जाने के बाद अब आप इस बात से तो सहमत होंगे कि पूरे देश में लाखों की जनसंख्या के प्रतिरोध के बावजूद, न तो बलात्कार की घटनाएं रुकी हैं, न इन्हें रोकने और उचित दंड-विधान के बारे में जनता में एकमत बनता नजर आ रहा है। मीडिया की भूमिका भी बहुत स्पष्ट नहीं है। इस घटना के बारे में पूरा सच क्या है? इसकी प्रामाणिक जानकारी तो शिकार हुए व्यक्तियों और शिकारियों के अलावा किसी को नहीं हो सकती। जो निरीह युवती इस अमानुषिकता की भेंट चढ़ गई, वह अपनी व्यथा और पीड़ा को पूरी तरह बयान करने की स्थिति में थी ही नहीं। उसके मित्र द्वारा प्रस्तुत जो ब्योरा एक न्यूज चैनल के माध्यम से सामने आया है; वह भी एक लंबी चुप्पी के बाद। उस पर विवाद उठना स्वाभाविक ही था। इस जघन्य अपराध की सजा क्या हो? इस प्रश्न पर भी तरह-तरह के मत सामने आ रहे हैं। इस कांड के सबसे नृशंस और पाशविक अभिकर्ता को उम्र का लाभ दिए जाने की पेशकश अपनी जगह चल रही है। जहां तक मेरी जानकारी है, मामला तीन महीने के अंतर पर टिका है- मक्खी पर मक्खी मारने की शैली में। मुझे मुख्यमंत्री और पुलिसकर्मियों से भी ज्यादा शिकायत उन नागरिकों से है, जो उस रास्ते से गुजरते रहे- पैदल या गाड़ियों में, पर किसी ने तत्काल सौ नंबर पर पुलिस को खबर करने की जहमत नहीं उठाई। उनका तर्क होगा कि उन्होंने पुलिस के झमेले में पड़ने के भय के कारण ऐसा किया। यह तर्क ऐसी भयावह घटना के संदर्भ में कितना लचर और निरर्थक है, यह कहना व्यर्थ है। इससे व्यापक समाज की, जिसमें युवा पीढ़ी के कुछ लोग भी रहे होंगे, मानसिक बनावट उजागर होती है। ऐसी संवेदनहीन, अमानवीय जनता ऐसी ही भ्रष्ट और निर्मम पुलिस और शासन-व्यवस्था तले पिसने के लिए अभिशप्त होगी। युवा पीढ़ी का आक्रोश और प्रतिरोध में एकजुट होना, उम्मीद की किरण जरूर जगाता है। उस भीड़ की संरचना पर ध्यान दें तो उसमें पुरुषों और उम्रदराज लोगों की भी कमी नहीं थी। क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि ऐसी प्रतिक्रिया के लिए हमें ऐसी ही भयावह घटनाओं का इंतजार करते रहना अमिताभ बच्चन से फिकरा उधार लेकर कहना चाहती हूं कि लेखकों का ‘समय शुरू होता है अब’। कुछ जिम्मेदार नागरिक इस दिशा में जो पहलकदमी कर रहे हैं- निस्वार्थ भाव से, उनके समांतर लेखक वैयक्तिक या सांगठनिक रूप में क्या कर रहे हैं? स्त्री-विमर्श की दुहाई देते हुए जो लेखिकाएं हर छोटी-बड़ी बात को तूल देकर अखबारों और मंत्रियों तक के दरवाजे खटखटाने लगती हैं, उनका इस पूरे प्रसंग पर क्या कहना-करना है? आपको जानकारी होगी कि भ्रष्टाचार की समस्या पर 25 सितंबर, 2012 को सेवानिवृत्त वरिष्ठ अफसरों के एक भ्रष्टाचार विरोधी संगठन ने राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन भेजा था। उसकी प्रति प्रधानमंत्री को भी भेजी गई थी। इस ज्ञापन पर सीबीआइ के पूर्व निदेशक के अलावा सात सेवानिवृत्त प्रशासनिक सेवा के अफसरों और आधे दर्जन जल-थल सेनाधिकारियों के हस्ताक्षर मौजूद हैं। इसके साथ एक संलग्नक में वर्तमान पुलिस कमिश्नर की बेशुमार संपत्ति का ब्योरा दिया गया है, जिनमें उनके कारनामों के साथ छद्म-नाम से विदेशी बैंकों में जमा खातों का विस्तृत विवरण मौजूद है। भेजने वाली संस्था का नाम, पता और फोन नंबर दिए जाने के बावजूद सरकारी तंत्र की चुप्पी इस प्रसंग के प्रति उच्चतम राजनेताओं के रवैए को उजागर करती है। वर्तमान प्रसंग में भी मुख्यमंत्री और पुलिस कमिश्नर के बीच होने वाली नोक-झोंक और इस घटना के प्रति पुलिस और सरकारी नीयत को इस घटना के आलोक में समझा जा सकता है। क्या यह आकस्मिक है कि इधर अखबारों में बलात्कार की घटनाओं के समाचार लगातार आ रहे हैं। बच्चियां, कमसिन युवतियां, जिनमें रिश्ते में बेटियां, बहनें, सालियां, सब नर-पशुओं का शिकार हो रही हैं। जाहिर है, पूरे समाज के सोच में घुन लग गया है। सवाल यह है कि कर्म से और कलम से, इस स्थिति के निवारण में लेखक बिरादरी की कैसी भूमिका हो, वैयक्तिक या सांगठनिक रूप में? वरना यह विकल्प तो है ही कि जब पूरे परिवेश में आग लगी हो, तो औरों से जवाबतलबी करने और दूसरों पर मूल्य-निर्णय देने या फतवेबाजी करने के बजाय हम खुद से सवाल करें ‘अब तक क्या किया- जीवन क्या जिया’। देश में जो आग लगी है, उसकी लपेट में कब कौन कैसे आ जाए- कहना मुश्किल है। जहां तक अज्ञेय जी वाली घटना का सवाल है, आप भूले तो न होंगे कि जहां उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन करने से इनकार कर दिया था, वहीं उन्हीं की बिरादरी ने मुखर विरोध के अभाव में उनके ‘मौन’ की सार्थक व्याख्या कर डाली थी- ‘मूक समर्थन’ कह कर। इसे विडंबना ही कहा जाएगा। (जनसत्ता Sunday, 13 January 2013 से साभार ) |
गैर-मामूली समय में : निर्मला जैन
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