Man of the classes and masses by Sukhdarshan Likhi

AFTER my initial training as an IPS officer, I was posted to Sangrur district in 1957. I decided to call on the Deputy Commissioner at his office located on the first floor of the Baradari Complex. The liveried attendant on duty asked me to take a seat, pointing to the only chair on the raised platform, and wait for the DC. I was unaware that this platform was part of the DC’s court room. A few minutes later, walked in a stately Sardarji, clad in a flowing white khadar kurta, churidar and a waistcoat to match. He introduced himself as the DC and shook hands warmly. I was embarrassed for occupying his chair, but he put me at ease and asked for another chair. As I came down from his office, I noticed a Lambretta scooter, with the DC’s flag, parked there. The constable on duty informed me that the DC generally came to the office on scooter. That set me thinking how unconventional the officer was, shorn of any aura of power and status. 
He was open-minded, accessible to the public at office and residence, and would tour villages frequently. He respected his officers and allowed them to take independent decisions, earning their trust. He assiduously built the image of the civil administration as responsive, fair and egalitarian.
On his first visit to the district, the then chief minister asked the officers who consumed liquor to raise their hands. The DC was the first to do so. The other officers sat silent with their heads down. The matter was put to rest. 
As an Urdu poet of considerable standing, he had good connections with Bollywood actors, music composers, singers, writers and lyricists. He leavened the cultural life of the district by organising mushairas and musical nights for the public. On one such occasion, he mesmerised a crowd of nearly 10,000 by his rendition of Mohd Rafi’s Chaudhvin Ka Chand Ho. I remember managing the crowd with only 50 men and my uniform having been torn during the event. 
Once I received a phone call from the DC, saying that his daughter needed a driver’s licence. I said no problem but she should come for the driving test. She took the test, and he later thanked me for it. 
He was also fond of shikar. For this, the key man was his personal gun-toting bodyguard-cum-wrestler-cum-masseur. This man was often seen with a falcon perched on his left shoulder, ready to attack the prey. 
The DC was a man of the classes as well as masses. When he was transferred from the district after the completion of his tenure, hundreds of rural and city folks came to see him off. They followed his car on cycles and in cars and trucks, right up to the border of the district. His popularity had to be seen to be believed. 
The then political dispensation offered him an MP’s seat from the district, but he declined the offer. There was none who could match him in cultural finesse and affability. This gentleman was the late Kanwar Mohinder Bedi, the like of whom we do not see in public service any more. (The Tribune dated 30.09.2015)
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सोशल मीडिया पर भक्तों की प्रजाति: चेतन भगत

Jul 09, 2015, 06:58 AM IST (Chetan Bhagat's
Article In Dainik Bhaskar)

देश में इंटरनेट और सोशल मीडिया के उदय से एक विशिष्ट खोज हुई है। यह खोज है अलग से नज़र आने वाली सायबर प्रजाति की मौजूदगी, जिसे ‘भक्त’ कहा जाता है। यह शब्द उन दक्षिणपंथी यूज़र अकाउंट्स के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो सारी हिंदू चीजों के आक्रामक प्रशंसक हैं। राजनीतिक रूप से वे प्राय: भाजपा का समर्थन करते हैं, जो हिंदुत्व की ओर झुकाव रखने वाला दल है। भाजपा के सफलतम नेताओं में से एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए वे अत्यधिक संरक्षणवादी हैं। उन्हें प्राचीन काल के हिंदू राजा पसंद हैं और उन्हें ऐसे किस्से पसंद हैं कि कैसे भूतकाल में हिंदुओं को धोखा दिया गया। वे प्राय: ऐसी कहानियां ऑनलाइन शेयर करते देखे जा सकते हैं।

‘भक्त’ का यह लेबल लगभग किसी भी मोदी समर्थक पर लगा दिया जाता है, लेकिन सच्चे भक्त और सिर्फ मोदी के स्वच्छ भारत अभियान या उनकी कुछ नीतियों को पसंद करने वाले में बहुत बड़ा फर्क है। सच्चा भक्त तो श्रद्धालु होता है। भक्त और सिर्फ समर्थक वोटर होने में यही अंतर है। ये भक्त एंथ्रोपोलॉजी यानी मानववंश शास्त्र की अद्‌भुत घटना मानी जाते, यदि वे वक्त-बेवक्त टि्वटर पर उधम नहीं मचाते। कुछ साल पहले पत्रकार सागरिका घोष ने खुद पर सायबर हमले के बाद ‘इंटरनेट हिंदू’ शब्द गढ़ा था। कुछ हफ्ते पहले सच्चे भक्त की प्रजाति के लोगों ने खरा-खरा बोलने वाली एक महिला पर सायबर हमला कर दिया, जिन्हें प्रधानमंत्री समर्थित प्यारे व दोष रहित अभियान ‘बेटी के साथ सेल्फी’ निरर्थक लगता है। ये सच्चे भक्त हैं कौन? उनकी प्रेरणा क्या है? हम और खासतौर पर वे खुद अपनी बिरादरी को थोड़ा शांत बनाने के लिए क्या कर सकते हैं? इसके लिए उन्हें समझना महत्वपूर्ण है।

पहली बात तो यह है कि ये सच्चे भक्त हिंदू धर्मांध नहीं हैं। वे विश्व हिंदू परिषद के सदस्य भी नहीं हैं। उनमें से कुछ तो हिंदू हित से खुद को जोड़ते भी नहीं। वे खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं। यदि आप उन पर भरोसा करें तो उनका घोषित उद्‌देश्य है राष्ट्र निर्माण और यह सुनिश्चित करना कि भारत अपना खोया वैभव फिर हासिल कर ले। वास्तव में न तो वे हिंदू योद्धा हैं और न राष्ट्रवादी। घिसी-पिटी बात दोहराने की कीमत पर मैं कहना चाहूंगा कि सच्चेे भक्त में ये चार लक्षण आम हैं। 1. वे लगभग सब के सब पुरुष हैं। 2. संवाद साधने का उनका कौशल, खासतौर पर अंगरेजी में, बहुत कमजोर है। इसके कारण उनमें इस बात का थोड़ा हीनभाव है कि तेजी से बदलती, वैश्विक दुनिया के अनुरूप उनमें पर्याप्त नफासत व व्यवहार कुशलता नहीं है।

तीसरी बात, आमतौर पर उनमें महिलाओं से बात करने का सलीका नहीं होता। ऐसे में महिलाओं से कैसे व्यवहार किया जाता है और कैसे उन्हें आकर्षित कर गर्लफ्रेंड बनाया जाता है, इसका उन्हें पता होने की संभावना नहीं है। उन्हें महिलाओं से निकटता की आकांक्षा तो है पर वे ऐसा कर नहीं पाते। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वे यौन स्तर पर कुंठित हैं। 
चौथी बात, हिंदू होने, हिंदी बोलने या भारतीय होने में शर्म का गहरा भाव है। गहराई में उन्हें कहीं यह अहसास है कि देश का गरीबतम तबका हिंदी बोलने वाला हिंदू ही है। वे यह भी जानते हैं कि भारत तीसरी दुनिया का, तीसरी श्रेणी के आधारभूत ढांचे वाला देश है और विश्व स्तर पर खेल, विज्ञान, रक्षा या रचनात्मकता के क्षेत्र में उसकी कोई खास उपलब्धियां नहीं हैं। इस शर्म को छिपाने के लिए वे छाती-ठोक राष्ट्रवाद का सहारा लेते हैं। फिर उनके लिए भाजपा नेता और खासतौर पर नरेंद्र मोदी सबसे ऊंची प्रेरक हस्तियां हैं। मोदी हिंदू-हिंदी-साधारण साधन- वाली पृष्ठभूमि से है, जिसका उन्हें कोई रंज नहीं है।
वे इस बात का प्रतिनिधित्व करते हैं कि ऐसी पृष्ठभूमि के सर्वश्रेष्ठ लोग कैसे हो सकते हैं। चूंकि मोदी और उनकी कामयाबी सामने दिख रही है, सच्चे भक्तों के लिए खुश होने और यह महसूस करने का वाजिब कारण मौजूद है कि शीर्ष पर उनकी भी जगह है। इसलिए उनकी रक्षा करना उनके लिए महत्वपूर्ण है। यही वजह है कि आपने देखा होगा कि सच्चे भक्त विभिन्न घोटालों में मोदी की चुप्पी का बचाव कर रहे हैं, यहां तक कि प्रधानमंत्री पर सवाल उठाने वाले किसी भी व्यक्ति पर पूरी ताकत से हमला बोल रहे हैं। जिस व्यक्ति का वह बचाव कर रहे हैं उसमें वस्तुनिष्ठता का कोई स्थान नहीं है। व्यक्तित्व पूजा को अपनी ही प्रजाति के व्यक्ति को आदर्श बनाने की तरह देखा जा रहा है। इस तरह कमजोर अंगरेजी, यौन कुंठा, अपनी पृष्ठभूमि पर शर्मिंदगी की भावना और हीनता से ग्रस्त भारतीय पुरुष सच्चा भक्त बन गया है या उसमें इसकी संभावना है।
असल में इसी कारण आत्मविश्वास से भरी, अंगरेजी बोलने वाली महिला को मोदी का विरोध करने पर सच्चे भक्त का सबसे खराब विरोध झेलना पड़ा, क्योंकि सारे बिंदुओं पर यह दुखती रख पर उंगली रखने जैसा था- आत्मविश्वास की कमी, यौन कुंठा और अपने आदर्श का बचाव करने की गहरी इच्छा। यह सब सतह पर उभर आया और गुस्से में बदल गया। चूंकि सोशल मीडिया में पहचान छिपाने की सहूलियत है, यह क्रोध व्यक्तिगत स्तर पर गाली-गलौज में व्यक्त हुआ। ध्यान दें कि भाजपा ने कभी इन सच्चे भक्तों को व्यक्ति-पूजा के लिए आमंत्रित नहीं किया। यहां तक कि प्रधानमंत्री को भी उन्हें यह सब बंद करने को कहना पड़ा, क्योंकि वे भी इस अति-आक्रामक भक्ति से आज़िज आ चुके हैं।

बेशक, अंतत: किसी भी दल में सभी स्वतंत्र मतदाताओं का स्वागत ही होगा और भाजपा को इनसे परहेज नहीं है। हालांकि, भाजपा को इस बेलगाम टेस्टोस्टेरॉन (आक्रामकता पैदा करने वाला हार्मोन) से खुद को दूर कर लेना चाहिए। शुरू में जो समर्थन लगता है, वह जल्दी ही भद्‌दा लगने लगता है और पार्टी की कट्‌टरपंथी छवि को और मजबूत करता है। अंतत: भारतीय मतदाता घबरा जाएगा और फिर डिफॉल्ट पार्टी- कांग्रेस के पास चला जाएगा। इसी के कारण तो कांग्रेस ने साठ साल शासन किया और भाजपा ने हाल ही में सिर्फ छह साल का आंकड़ा पार किया है।

इस बीच हम क्या कर सकते हैं? सबसे अच्छा तो यही है कि सच्चे भक्तों को गंभीरता से न लें। बेशक, संवेदनशील लोगों के लिए व्यक्तिगत छींटाकशी की उपेक्षा करना कठिन होगा, लेकिन उसके पीछे उनका इरादा समझने का प्रयास करें। वे मोदी भक्त नहीं हैं; वे तो बस कुंठित और हीन ग्रंथि से ग्रस्त भारतीय पुरुष हैं। सच्चे भक्तों से भी मैं कहूंगा कि स्मार्ट बनो, अंगरेजी सीखो। कुछ महिला मित्र बनाएं और उनसे सलाह लें कि लड़कियों से कैसे बात की जाती है। जब आत्मविश्वास आ जाए तो किसी से डेटिंग का अनुरोध करें और जेंटलमैन की तरह उसे बाहर ले जाएं। कौन जानता है कि आपकी भी किस्मत चमक जाए। एक बार ऐसा हो जाए तो मेरा भरोसा कीजिए कि आपके पास ट्विटर पर गाली-गलौज से बेहतर कुछ करने के लिए होगा। गुड लक!
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60 died due to malaria this year, 19 due to dengue: J P Nadda

By PTI | 24 Jul, 2015, 04.59PM IST



NEW DELHI: Malaria has claimed the lives of 60 people while 19 people have died due to dengue in the county this year, the government today said. 

Health Minister J P Nadda informed the Lok Sabha that 2,56,309 malaria cases have been reported across the country till May this year and 60 people have died due to the disease. Last year 535 people had died of malaria. 

He said that 15 people each have died of malaria this year in West Bengal and Odisha while 12 have died in Meghalaya. 

Nadda also said that 19 people have died of dengue as per data available till June 28 this year while 5,874 cases have been reported. 

Noting that there have been no reports of any deaths due to Chikungunya in the country, Nadda said that 5,955 suspected cases have been reported. 

Till July 27, 62 deaths have been reported due to Japanese Encephalitis while 391 cases have been registered. Out of the 62, 41 deaths were reported in Assam. 

Nadda said that three deaths have been reported due to Kala-azar in the country while 3,681 cases have been reported. 

He said that India being a tropical country, six vector-borne diseases - malaria, dengue, chikungunya, Japanese Encephalitis, Kala-azar and Lymphatic Filariasis are reported from various parts of the country. 

The reasons, he said, were due to geographical terrains which expose communities to various pathogen, poor solid waste management practises and unplanned unplanned urbanisation, climate conditions, poor housing condition and migratory population. 


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वर्ल्ड मॉस्किटो डे: मलेरिया के उपचार की रोमांचक खोज

वर्ल्ड मॉस्किटो डे: मलेरिया के उपचार की रोमांचक खोज

आज से ठीक 117 साल पहले भारत में जन्मे और तत्कालीन इंडियन मेडिकल सर्विस के अधिकारी डॉ. रोनाल्ड रॉस ने मच्छर की आंत में मलेरिया के रोगाणु का पता लगाकर यह तथ्य स्थापित किया था कि मच्छर मलेरिया का वाहक है और मच्छरों पर काबू पाकर इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है। इस खोज ने कई रोगों के इलाज की दिशा में नए युग की शुरुआत की। रॉस को इस खोज के लिए 1902 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया। सिकंदराबाद की भीषण गर्मी, अत्यधिक उमस और खुद मलेरिया के शिकार होते हुए भी उन्होंने एक हजार मच्छरों का डिसेक्शन किया। यह काम कितना कठिन था, यह खोज के दिन व्यक्त उनके शब्दों से पता चलता है :
रोनाल्ड रॉस का जन्म 13 मई 1857 को अल्मोड़ा में हुआ था। देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के सिर्फ तीन दिन बाद। वे अंग्रेजी राज की भारतीय सेना के स्कॉटिश अफसर सर कैम्पबेल रॉस की दस संतानों में सबसे बड़े थे। युवा रोनाल्ड की रुचि कवि या लेखक बनने में थी। स्कूली पढ़ाई में उन्हें गणित की समस्याएं हल करने में मजा आता था। तब इंडियन मेडिकल सर्विस (आईएमएस) के अफसरों को बहुत अच्छी तनख्वाह मिलती थी और तरक्की के बहुत मौके थे, इसलिए उनके पिता उन्हें इंडियन मेडिकल सर्विस का अफसर बनते देखना चाहते थे। इंग्लैंड में स्कूली शिक्षा के बाद पिता के दबाव में उन्होंने लंदन के सेंट बर्थेलोम्यू मेडिकल स्कूल में प्रवेश ले लिया। 
मेडिकल शिक्षा पूरी होने के बाद वे अनिच्छापूर्वक आईएमएस की प्रवेश परीक्षा में बैठे और नाकाम हुए। पिता के दबाव में अगले साल वे फिर परीक्षा में बैठे और 24 सफल छात्रों में 17वें नंबर पर आए। आर्मी मेडिकल स्कूल में चार माह के प्रशिक्षण के बाद वे आईएमएस में दाखिल हो गए और पिता का सपना पूरा हुआ। उन्हें कलकत्ता या बॉम्बे के बजाय सबसे कम प्रतिष्ठित मद्रास प्रेसीडेंसी में काम करने का मौका मिला। वहां उनका ज्यादातर काम मलेरिया पीड़ित सैनिकों का इलाज करना था। क्विनाइन से रोगी ठीक तो हो जाते, लेकिन मलेरिया इतनी तेजी से फैलता कि कई रोगियों को इलाज नहीं मिल पाता और वे मर जाते।

भारत में सात साल काम करने के बाद वे बोर हो गए और 1888 में इंग्लैंड लौट गए। हालांकि, वहां उन्होंने पाया कि उनके साहित्य के पाठक परिजनों व मित्रों से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। उनकी आंखें खुली और उन्होंने लंदन में ‘पब्लिक हैल्थ’ में डिप्लोमा कर लिया। अब वे प्रयोगशाला की तकनीकों और माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल करने में माहिर हो गए थे। वे 1889 के आखिर में फिर भारत लौटे और बेंगलुरू के छोटे से सैन्य अस्पताल में काम करने लगे। अब वे मलेरिया पर थ्योरी बनाने में लग गए। बुखार का कोई भी रोगी आता तो वे उसकी उंगली में सुई चुभोकर खून का सैंपल लेते और घंटों माइक्रोस्कोप के नीचे रखकर अध्ययन करते। 1894 में वे लंदन आए और तब के ख्यात डॉक्टर पेट्रिक मैन्सन से मिले तो उन्होंेने रॉस से कहा, ‘मुझे लगता है कि मच्छर मलेरिया के रोगाणु फैलाते हैं।’ इन शब्दों ने रॉस के जीवन को बदल दिया। उन्हें एक उद्‌देश्य मिल गया।
जहाज से भारत लौटते समय वे यात्रियों व चालक दल के सदस्यों को सुई चुभोकर खून के सैंपल लेते और उसकी जांच करते। जहाज जिस भी बंदरगाह पर रुकता, वे उस शहर के अस्पताल से मलेरिया के रोगियों के खून के सैंपल मांगते। अपने सैन्य अस्पताल में पहुंचकर उन पर काम का जुनून ही सवार हो गया। रोगी उन्हें देखते ही भागने लगते, क्योंकि वे बार-बार सुई चुभोने से परेशान हो गए थे। साथी डॉक्टर उन्हें मलेरिया के मामलों से दूर ही रखते। एक सुई चुभोने का वे 1 रुपया देने लगे, जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम थी। वे मच्छर पकड़ते। रोगियों को मच्छरदानी में सुलाकर मच्छर छोड़ देते ताकि उनके काटने से उन्हें अध्ययन का मौका मिले। सैकड़ों मच्छरों का डिसेक्शन कर लिया पर कोई परिणाम नहीं निकला। वे निराश होकर रिसर्च छोड़ने पर उतारू हो गए। तब मैन्सन ने पत्र लिखकर उन्हें काम जारी रखने को प्रेरित किया। 
फिर रॉस ने मच्छरों को अब्दुल कादिर नाम के रोगी को काटने दिया। इन मच्छरों को पानी से भरी बोतल में तब तक बंद रखा जब तक वे मर न गए और फिर बहुत बड़ी रकम देने का वादा कर अपने नौकर व दो अन्य को वह पानी पीने को कहा। उनके नौकर को बुखार आया पर वह तीन दिन में ठीक हो गया। खून में मलेरिया का रोगाणु भी नहीं मिला। वे इतने हताश हो गए कि फिर कविताएं लिखने लगे। 1897 में वे उटी के नजदीक सिगुर घाट गए। वहां उन्हें मलेरिया हो गया। वहां कमरे में पड़े-पड़े उन्हें दीवार पर अजीब-सा मच्छर दिखा, जिसे उन्होंने चितकबरे पंखों वाला मच्छर (मादा एनाफिलिस) कहा। अचानक उन्हें लगा कि वे मच्छर की गलत प्रजाति पर प्रयोग कर रहे हैं। वे जून 1897 में सिकंदराबाद लौटे और उन्हें हैजा हो गया। ठीक हुए तो उन्होंने मच्छर की विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन शुरू किया। उनका नौकर बोतल में मच्छर पकड़-पकड़कर लाता और वे डिसेक्शन करते। हर कोशिका का परीक्षण करते। रॉस ने लिखा है, ‘अगस्त में मौसम बहुत गर्म था। शुरू में तो मैं बड़े मजे से काम करता पर नाकामी के बाद नाकामी देखकर मैं हताश हो चला था। माइक्रोस्कोप में आंखें गड़ाने से वे इतनी थक जातीं कि भरी दोपहर में घर लौटते वक्त मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। उस दिन बेगमपेट के अस्पताल के मेरे ऑफिस में बादलों से ढके आसमान से हल्की सी रोशनी आ रही थी। पसीना बह रहा था पर नौकर को पंखा करने को नहीं कह सकता था, माइक्रोस्कोप के नीचे रखे मच्छर हवा से उड़ जाते। उनके भाई-बंधु चारों तरफ से मुझे काट रहे थे। महीनों से पसीना गिरने से माइक्रोस्कोप के स्क्रू में जंग लग गया था। इसका आखिरी आई-पीस क्रेक हो गया था। 15 अगस्त को मेरा नौकर जो बोतल लेकर आया उसमें चितकबरे पंखों वाले कई मच्छर थे। मेरी तो बांछें खिल गईं। मलेरिया के रोगी हुसैन खान को 1 आना देकर मच्छरों से कटवाया गया। उसे कुल 10 आने दिए गए। 17 अगस्त को मैंने दो मच्छरों का डिसेक्शन किया। कुछ नहीं मिला। 19 अगस्त को मैंने एक मच्छर का डिसेक्शन किया तो उसमें 10 माइक्रॉन की कोशिका थी, जिसमें कुछ  रचनाएं थीं पर कुछ स्पष्ट नहीं हुआ। 20 अगस्त को मैं सुबह 7 बजे ही अस्पताल पहुंच गया। रोगियों को देखा। जरूरी पत्र देखें। जल्दी-जल्दी नाश्ता किया। हुसैन खान से मिला अब दो ही मच्छर बचे थे।  
दोपहर बाद 1 बजे मैंने मच्छर का डिसेक्शन शुरू किया। माइक्रॉन बाय माइक्रॉन कोशिकाओं का अध्ययन चल रहा था। अचानक मच्छर के पेट की दीवार पर 12 माइक्रॉन की एकदम गोल रचना नजर आई। थोड़ा आगे देखा तो एक और ऐसी रचना थी। फोकस बदला तो हर रचना में कुछ काला दानेदार-सा भरा पाया। चाय पीकर सो गया। उठा तो विचार आया कि यदि कोशिका में मलेरिया के रोगाणु हैं तो सुबह उन्हें फूल जाना चाहिए। 
रात बेचैनी में गुजरी। सुबह आखिरी मच्छर का डिसेक्शन किया और उसमें पेट की कोशिकाएं फूली हुई थीं। ये मलेरिया के रोगाणु (प्लास्मोडियम वायवैक्स) थे।’ 20 अगस्त का दिन इसीलिए मलेरिया दिवस के रूप में मनाते हैं। 4 सितंबर को वे बेंगलुरू में परिवार के पास लौटे और अपना पेपर लिखा, जो 18 दिसंबर 1897 को ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ।-भास्कर रिसर्च 20.8.2014 'दैनिक भास्कर' से साभार

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Malaria camp concludes at Bhanupratappur

TNN | Dec 3, 2013, 03.30 AM IST

RAIPUR: Medicine spraying campaign 2013 formalaria eradication under national vector-borne disease control programme concluded at development block of Bhanupratappur. The campaign had started in September this year.

During the campaign, at least 87 parasite-infested villages under 24 sub-health centres were selected and 1,210 kg Alpha-Cypermethrin medicine was sprayed.

According to heath department, medicine was sprayed in 14,652 houses, fulfilling 97% of the year's target. Such campaigns are launched every year to control malaria parasite infection in the area, said a health official. During exigencies, malaria control vigilance teams conduct rapid fever survey and try to control the disease, he added.

According to data with the health department, malaria infects nearly a lakh of people in Chhattisgarh every year. In 2012, 93,218 people were affected resulting in the death of 84.
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​कविता: रंगों में जीवन---हरेप्रकाश उपाध्याय



कई बार चीजों को हम
उनके रंगों से याद रखते हैं
रंगों को कई बार हम
रंग की तरह नहीं
फूल, चिड़िया या स्त्री की तरह देखते हैं।
रंगों की दुनिया इतनी विविध
इतनी विशाल
इतनी रोचक है कि
कई बार हमें लगा है
कि हम आदमी से नहीं
रंगों से  करते हैं प्यार
रंगों से ही नफरत।

कुछ रंग इतने प्यारे कि
हम उन्हें पोशाक की तरह पहनना चाहते हैं
कुछ लोगों की कुछ रंगों से नफरत भी
ऐसी ही
हम हर रंग को फूल की तरह देखें
अपनी पसंदीदा फूल की तरह
तो कम हो कुछ रंग भेद——
मुझे ऐसा लगता है कि
रंग को हम सिर्फ फूल की तरह देखें तो
हर रंग से हो जाय धीरे—धीरे प्यार
ढेर सारे रंगों से कर करके प्यार
बनाया जाय एक विविधवर्णी संसार।
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