यह समय मामूली नहीं :: ओम थानवी


ओम थानवी
: कृष्णा सोबती हिंदी की शान हैं। उन्होंने हिंदी को नई भंगिमा दी है। उनका कथा-साहित्य भी अपनी साफगोई और ठसक के लिए पहचाना जाता है। हिंसा भरे साल की ढलती घड़ियों में जब देश जगह-जगह उम्मीद के दीये जला रहा था, कृष्णा जी ने एक दीया ‘जनसत्ता’ के पहले पन्ने पर रखने के लिए हमें भेजा।
मेरे लिए संपादक के नाते वह क्षण अनमोल था। दो रोज पहले ही कहीं चर्चा छिड़ी थी कि दिल्ली हिंदी साहित्य का गढ़ बन चुकी है, पर नृशंस बलात्कार के विरोध में जब राजधानी राजपथ पर थी, बेशुमार विद्यार्थी, शिक्षक और समाज के विभिन्न वर्ग कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे, उस वक्त दिल्ली के साहित्यकार कहां थे? कहीं बीमारी के बावजूद बार-बार फोन पर रुआंसी मन्नू भंडारी जरूर थीं, या आंदोलनकारियों के बीच सुमन केशरी, अपूर्वानंद, मनीषा कुलश्रेष्ठ, चंद और युवा लेखक और अध्यापक। रंगकर्मियों में अरविंद गौड़। ‘कभी-कभार’ में अशोक वाजपेयी। बस?
हैरत की बात है कि संघर्ष की प्रेरणा देने वाले लेखक संगठन उस वक्त सोए हुए थे, जब स्वत:स्फूर्त आंदोलनकारी राजपथ और इंडिया गेट के गिर्द पुलिस की लाठी खा रहे थे, आंसू गैस के गोलों और पानी की मार मारने वाली तोपों से जूझ रहे थे। कोई जुलूस, सभा, आह्वान, यहां तक कि प्रेस विज्ञप्ति भी नहीं, जो अन्यथा हमारे दफ्तर में आती ही रहती हैं।
ऐसे में राजपथ पर पुलिस के हिंसक रवैये पर कृष्णा सोबती का फोन पर व्यथा प्रकट करना मेरे लिए मार्मिक क्षण था। और 31 दिसंबर को उनका यह कहना कि कुछ लिखा है, अगर ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित करना चाहें। उनकी विनयशीलता की बात नहीं है। वह तो उनके स्वभाव में कूट-कूट कर भरी है। 90 वर्ष की उम्र को छूते हुए और गर्दन की पीड़ा से जूझते हुए वे आंखों पर बहुत बड़ा चश्मा लगाती हैं, खुर्दबीन के सहारे पढ़ती हैं और स्केचपेन से बड़े-बड़े हर्फों में लिखती हैं।
लेकिन स्वाधीन राष्ट्र की संप्रभुता के प्रतीक राष्ट्रपति के नाम उन्होंने पत्र की शक्ल में अपनी पीड़ा, फिक्र और सरोकारों को अपने धारदार गद्य में जिस तरह पिरोया, उसने मुझे एक अजीब खालीपन के अहसास से उबारने में बड़ी मदद की। उनका मजमून पहली जनवरी को ‘नए साल की देहरी पर’ शीर्षक से छप चुका है। मेरा खयाल है कि अपने प्रकाशन के साथ ही राष्ट्रपति के नाम वह ‘‘पत्र’’ अब हिंदी साहित्य में लेखक के सामाजिक सरोकारों का जीवंत दस्तावेज बन गया है। दस्तावेज इसलिए कि दिल्ली बहुत बोली, पर हिंसा की इंतिहा के खिलाफ लेखक की कलम से हुंकार की जो दरकार थी, वह मायूसी की घड़ियों में हमें किसी क्रांतिधर्मी लेखक से नहीं, कृष्णा जी से मिली।
यह जरूरी नहीं कि बड़े संकट की घड़ी में हर लेखक सड़क पर उतर आए। यह भी जरूरी नहीं कि हर लेखक हर घटना पर कुछ लिखे। फौरन लिखने की अपेक्षा भी लेखक के साथ एक तरह की ज्यादती होगी। जब अस्सी के दशक में कवि रसूल हमजातोव दिल्ली आए, उनसे पूछा गया था कि बेंजामिन मोलाइस को जब फांसी लगी तब कवियों ने बहुत कविताएं लिखीं। आपने नहीं? उन्होंने जवाब दिया- तब मैंने फांसी के विरोध में एक भाषण दिया था।
हमजातोव अपनी जगह सही थे। हालांकि इतिहास इसका भी गवाह है कि जब-जब अन्याय-अत्याचार-अनीति की इंतिहा हुई, लेखकों ने कलम उठाई है। इस तरह हमें भले महान रचनाएं न मिलती हों, उनका हस्तक्षेप अपना वजन साथ लेकर आता है। लोगों में संवेदन जगाता है और प्रेरणा देता है।
दिल्ली बलात्कार कांड पर के. सच्चिदानंदन ने मलयालम में कविता लिखी और इंटरनेट पर वह दुनिया भर में एक आवाज बनकर उठ खड़ी हुई। उसका मूल रूप कितना सशक्त रहा होगा, जब उसके हिंदी अनुवाद ने फेसबुक के पाठकों को झकझोर कर रख दिया। हो सकता है हिंदी में भी लेखकों ने लिखा हो और वह इमरजेंसी के बाद सामने आई कविताओं की तरह कभी पढ़ने को मिले। सवाल है कि आंदोलित जन के साथ लेखक बिरादरी का सरोकार कहां जाहिर हुआ? क्या यह सच्चाई नहीं कि जब-जब हमारे यहां इतिहास जन-आंदोलनों में करवट लेता है, लेखक की उपस्थिति अपनी बड़ी या सार्थक पहचान नहीं बना पाती?
संपूर्ण क्रांति का आंदोलन छिड़ा तब फणीश्वरनाथ रेणु की ऊंचाई के लेखक साथ थे। अज्ञेय जेपी का साप्ताहिक निकाल रहे थे। नागार्जुन संपूर्ण क्रांति से जुड़े, फिर अलग हो गए। लेकिन इंदिरा गांधी और उनकी इमरजेंसी पर उन्होंने मुखर होकर लिखा। प्रगतिशील लेखक संघ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अर्द्धांग होने के नाते इमरजेंसी के आततायी दौर का समर्थक था; जो लेखक समर्थक नहीं थे, वे मौन थे। फिर भी बहुत सारे लेखक
व्यथित थे। सब लेखक कमलेश, गिरधर राठी या मुरली मनोहर प्रसाद सिंह की तरह पूरी इमरजेंसी जेल में नहीं काट सकते थे। 
लेकिन जिनके पास मंच था उनकी क्या भूमिका थी? धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय क्रमश: ‘धर्मयुग’ और ‘दिनमान’ में ‘इंदिरा जी’ के बीस-सूत्री प्रपंच का गुणगान कर रहे थे। वक्त बदलने पर उनके स्वर बदले। लेखक के एकांतजीवी होने का दावा करने वाले अज्ञेय लेखकों की यह भूमिका देखकर क्षुब्ध हो गए। उन्होंने अपने विश्वस्त रघुवीर सहाय पर एक तुक्तक लिख डाला, जिसमें ‘दिनमान’ को समाचार साप्ताहिक से ‘परचे’ में तब्दील कर देने की बात कही गई थी।
एक दफा डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने दिलचस्प प्रसंग सुनाया। मैं उनकी विद्वत्ता के बाद   साफबयानी का भी कायल हुआ। उन्होंने बताया कि इमरजेंसी में बौद्धिक समुदाय में व्याप्त रोष की खुफिया खबरों से इंदिरा गांधी बेचैन थीं। प्रगतिशील लेखक संघ (तब एक ही संघ था) लेखकों से इमरजेंसी का समर्थन जुटा रहा था। त्रिपाठी जी प्रलेस की दिल्ली इकाई के महासचिव के नाते तीन अन्य लोगों के साथ अज्ञेय का समर्थन हासिल करने उनके घर गए। वे अज्ञेय को प्रधानमंत्री के घर बुलाई गई बौद्धिकों की एक बैठक में भी ले जाना चाहते थे। त्रिपाठी जी कहते हैं, अज्ञेय न सिर्फ बिफर गए बल्कि अपनी सहज शालीन आवभगत भुला कर उन्हें उलटे पांव चलता कर दिया। संभवत: इसी प्रसंग में सितंबर 1976 में अज्ञेय ने ‘बौद्धिक बुलाए गए’ कविता लिखी। उसमें एक तानाशाह ‘श्रद्धा’ प्रकट करने आए बुद्धिजीवियों को ‘सम्मान’ में सिरोपे प्रदान कर उनके चेहरे उतार लेता है और नए चेहरे देता है।
यहां यह कहना मुनासिब होगा कि दिसंबर के दिल्ली जनज्वार की तुलना जेपी के आंदोलन या तदन्तर लागू इमरजेंसी से नहीं की जा रही। लेकिन यह जनज्वार मामूली नहीं था। विरोध के इस जज्बे ने लोगों को बरबस संपूर्ण क्रांति या जनलोकपाल आंदोलनों की आखिर याद दिला दी। पर वे जेपी-अण्णा की हुंकार में पनपे आंदोलन थे, जिन्होंने जनमानस की दुखती रग को छुआ और लोग सड़कों पर निकल आए।
लेकिन बाईस दिसंबर को जो आंदोलन राजपथ पर देखा, वह पूरी तरह स्वत:स्फूर्त था। ठंड में रजाइयों में दुबके लोग घरों से बाहर निकल आए और सड़क से संसद तक फैल गए। राजपथ पर तिल रखने को जगह न थी। विजय चौक से आगे का रास्ता पुलिस ने रोड़े लगा कर रोक दिया था, क्योंकि आगे देश की सत्ता की धुरी- नॉर्थ-साउथ ब्लॉक- पड़ती थी; उससे आगे महामहिम राष्ट्रपति का महल। एक विरोधकर्मी जयपुर लाट से पहले पड़ने वाले राष्ट्रपति भवन के विशाल द्वार पर चढ़ने की कोशिश करने लगा। ‘भीड़ में घुस आए गुंडा तत्त्वों’ का नाम लेकर पुलिस ने आंदोलन को कमोबेश कुचल डाला। निकट स्मृति में क्या आपको ऐसा कोई और आंदोलन स्मरण आता है?
यह सिर्फ बलात्कार या हत्या का मामला नहीं। कानून व्यवस्था को हम बरसों से कोसते आए हैं। लेकिन कानून बनाने-निभाने वाले समाज की मानसिकता से बहुत दूर भी नहीं होते। समाज के संवेदन के इस तरह छीजने- बल्कि भोथरा जाने- की फिक्र लेखक समाज का सीधा सरोकार है। जनता, नेता और न्यायविद स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार के लिए कठोरतम दंड के संभावित प्रावधानों में उलझे हुए हैं। बर्बरता से बदला लेने के लिए बर्बर उपाय सामने आ रहे हैं। ऐसे परिवेश में लेखक समुदाय का दखल जरूरी अनुभव होता है।
शुक्रवार को दिल्ली बस कांड के जीवित बचे शिकार ने भी आपबीती बयान कर दी है। वह उस पुलिस के दावों की पोल खोलती है, जो जितनी सफाई देती है ज्यादा संदेह में घिरती जाती है। आहत युवक का कहना है कि बलात्कार और चरम हिंसा के बाद उन्हें जब बस में सवार दरिंदों ने सड़क पर बगैर कपड़ों के फेंक दिया, तब कोई दिल्लीवासी लाख गुहार के बाद भी मदद के लिए आगे नहीं आया। पुलिस ने मरणासन्न युवती को राहत देना दूर, ढंका तक नहीं। अस्पताल पहुंचाने में देर की, दूर के अस्पताल ले गए। लहूलुहान युवती को पुलिस की गाड़ी में पुलिस ने नहीं, घायल युवक ने लिटाया। अस्पताल पहुंचने के बाद भी युवक को तन ढंकने को चादर नसीब नहीं हुई। युवती ने दम तोड़ दिया। युवक की पीड़ा को समझने की कोशिश ही नहीं हुई।
यह संवेदनशून्यता समाज के जागरूक तबके को नहीं झकझोरती तो आस कहां से जगेगी?
अगर संवेदना में जागता-रचता लेखक समुदाय उदासीन रह जाएगा तो समाज के संवेदन को गहराई कहां से मिलेगी? कोई लेखक संगठन लिखना नहीं सिखा सकता; लेकिन ऐसे संघर्ष के मौके पर उसकी सक्रियता का कोई मतलब जरूर हो सकता है।
मुझे आहत युवक की यह बात ठीक लगी कि मोमबत्ती जलाएं यह अच्छी बात है; लेकिन इतना ही तो काफी नहीं! (
जनसत्ता 6 जनवरी, 2012)

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