मोदी की घंटी



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ओम थानवी
 सुहाना हिमाचल प्रदेश गुजरात के बवंडर से ढंक गया। सुशासन या भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का राग अलापने वाली भाजपा हिमाचल में कांग्रेस का बोझ बने ‘गैस सिलेंडर’ को चुनाव साक्षात प्रचार में लहराती रही और लॉलीपाप की तरह वैकल्पिक चूल्हा भी दिखाती रही। महंगाई, एफडीआई, कांग्रेस का भ्रष्टाचार सब धरे रह गए। भाजपा हिमाचल में हार गई। निश्चय ही शांता कुमार की बेरुखी और प्रदेश के पूर्व भाजपा अध्यक्ष महेश्वर सिंह की बेवफाई (जो नई पार्टी बनाकर बागी बन बैठे) भाजपा को भारी पड़ी होगी; लेकिन चुनाव आयोग के हर अनुष्ठान पर दूसरे मुख्यमंत्री का मुंह देखने वाली हिमाचल की जनता के सामने फिर छठी बार वीरभद्र सिंह थे। कांग्रेस नया नेतृत्व खड़ा करने की जुगत में उन्हें दिल्ली भगा ले गई थी; दो महीने पहले फिर उन्हें घोड़े पर सवार कर शिमला की ओर रवाना किया। मुझे कोई संदेह नहीं, अगर वीरभद्र सिंह को हिमाचल ही डटे रहने दिया होता तो प्रेमकुमार धूमल पूरी तरह धूमिल होकर हमीरपुर जाते।
क्या इसीलिए परिणाम के रोज दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में सन्नाटा था? इसीलिए हर चुनाव के बाद होने वाली प्रेस वार्ता भी वहां नहीं हुई? लेकिन भाजपा के लिए तो उधर गुजरात में हिमाचल की गमी को हर तरह भुला देने का सामान था! तीसरी बार उनके दबंग मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कमोबेश उतनी ही सीटों से वापसी।
दरअसल, नरेंद्र मोदी तिकड़ी जमाने के बाद खुद भाजपा के लिए खतरे की घंटी बन गए हैं। यह अकारण नहीं है कि मोदी की वापसी साफ हो जाने के बाद भी देर तक भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का मुखारविंद नहीं खुला। न वेंकैया नायडू, अरुण जेटली का। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह और सुषमा स्वराज तो खानपुर में भाजपा मुख्यालय के नगाड़े ठंडे पड़ जाने के बाद भी नहीं बोले। टीवी के परदों के लिए ज्यादातर उनके छुटभैये नेता मौजूद थे। वे भी महज ‘प्रतिक्रिया’ जाहिर करने के लिए। अंतत: गडकरी-जेटली नमूदार हुए तो कोई भी उनके चेहरे और शब्दों के बीच की नीरवता को पढ़ सकता था। वे खुशी में दमकते चेहरे कहीं से नहीं थे।
नरेंद्र मोदी की ‘शानदार’ जीत के पार्टी की ओर से मायूसी भरे स्वागत के मायने बहुत साफ हैं। मोदी अपने राज्य में सिकुड़ जाते तो बात और होती, मगर एक सौ पंद्रह सीटों पर कब्जा कर उन्होंने पार्टी के लिए मंदिर की नहीं, खतरे की घंटी बजाई है। वे ‘साधिकार’ दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक दे चुके हैं। पार्टी के बाहर भी लोग उठ खड़े हुए हैं, जो दिल्ली में मोदी की ताजपोशी के ख्वाहिशमंद हैं। युवा भाजपा कार्यकर्ताओं का एक वर्ग उनकी कार्यशैली का पहले से मुरीद है। लेकिन भाजपा में जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू या राजनाथ सिंह ने जो रास्ता अब तक नापा है, क्या गुजरात में मोदी की तीसरी जीत उन्हें अचानक इन सबसे बड़ा कर देती है?
अपने सारे पूर्वग्रह झाड़कर मुझे यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि मोदी में अनूठी ऊर्जा है। काम करने और काम लेने का माद्दा है। उन्होंने विकास भी किया है। लेकिन मुख्यत: वह शहरी विकास है; ग्रामीण गुजरात में- जो वैसे भी और प्रदेशों के मुकाबले थोड़ा ही है- लोगों को पानी-बिजली के लाले पड़े हैं। वरना यह विकास का कैसा जलवा हुआ कि गुजरात में भाजपा का पार्टी अध्यक्ष ही तिकड़ी की हवा में खुद टंगड़ी खा जाय? दूसरे, विकास मोदी के लिए लोकसेवा से ज्यादा कूद-फांदकर चढ़ने वाली सीढ़ी ज्यादा प्रतीत होता है। वरना विकास का जज्बा समग्रता में निहित होता है। समाज के एक हिस्से को दोयम दर्जे का, घृणित, उपेक्षणीय, यहां तक कि दुश्मन समझकर नहीं।
कोई भी समझ सकता है कि गुजरात का दबदबा केरल या कश्मीर में काम नहीं आ सकता। वरना बाल ठाकरे मुंबई छोड़कर अपनी सेना के झंडे दिल्ली में गाड़ चुके होते। जब अटल बिहारी वाजपेयी का चेहरा- पार्टी के तत्कालीन बौद्धिक जन के जुमले में मुखौटा- तक काम नहीं आया तो मोदी का सपना शीशे की तामीर ही लगता है। फिर भाजपा के कद्दावर घोड़ों की सांस क्यों फूली है? वजह साफ है कि मोदी संघ के पालने में बड़े हुए हैं। संघ में रूठना-पिघलना चलता रहता है। संजय जोशी के मामले में मोदी अपनी ठसक दिखा चुके हैं। सरसंघ चालक के साथ मिलकर अगर वे तीन टांग की दौड़ लगा बैठे तो सब दावेदार टापते रह जाएंगे!
क्या संघ का ही प्रताप नहीं था, जो महाराष्ट्र की हाशिये की राजनीति करते-न-करते नितिन गडकरी दिल्ली में भाजपा के सेनापति हो गए? मोदी तो दिल्ली से वापस गुजरात गए थे। यह दूसरी बात है कि शंकरसिंह वाघेला ने- जो तब भाजपा में बेचैन थे- पार्टी छोड़ने की धमकी देकर संघ की दखलंदाजी के सहारे मोदी को गुजरात से बाहर करवाया था। दिल्ली के वनवास में मोदी ने अपना कद बढ़ाया, संगठन-कौशल की बानगी दी, बड़े नेताओं से रसूकात बढ़ाए और जब गुजरात लौटे तो भाजपा में अपने लिए अब कोई संभावना न देख वाघेला कांग्रेस की कुंडी खटखटा रहे थे। महाराष्ट्रकालीन गडकरी को देखते मोदी की हालत लाख बेहतर है। गडकरी को संघ ने अपने पैराशूट से उतार तो दिया, पर वे अपनी संगठनात्मक प्रतिभा को साबित नहीं कर सके। मोदी ने तीसरा चुनाव कुछ-जाहिर-कुछ-पोशीदा दिल्ली की गद्दी के नाम पर ही लड़ा। जीत के नगाड़ों के   साथ उनके समर्थक ‘एनएम-पीएम’, ‘फिट फॉर पीएम’ के पोस्टर लहराने लगे। 
चुनाव परिणाम के बाद खानपुर के भाजपा जलसे में ‘दिल्ली-दिल्ली’ के नारे लगे तो जैसे पूरे पत्ते न खोलने का उपक्रम करते हुए मोदी बोले- ‘तो एक रोज के लिए दिल्ली हो आऊंगा’। लेकिन पूर्व वक्ताओं के गुजराती संबोधनों के बाद मोदी ने पूरा भाषण हिंदी में दिया तो उनका संदेश साफ था- अब जिगर थाम कर बैठो। गुजरात में गुजराती ही लोकसंपर्क की भाषा है। गुजराती लोग हिंदी खूब बोल लेते हैं, लेकिन गुजराती समुदाय जमा हो तो गुजराती ही बोलते हैं, राजस्थान की तरह हिंदी नहीं। कहने का मतलब यह कि तिहरी जीत पर मोदी की देश की राजभाषा में तकरीर खुद को देश का नेता जताने के साथ दिल्ली के आकाओं को सीधी ललकार भी थी।
उस राष्ट्र-के-नाम-संदेश-नुमा भाषण में मोदी ने अपनी ‘गलतियों के लिए माफी’ भी मांगी। लगा कि उन्हें सहसा ‘राजधर्म’ का अहसास हो चला है, जिसकी नसीहत कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने दी थी। लेकिन यह माफी की फरियाद इतनी गोलमाल थी कि उन ‘गलतियों’ में आप 2002 के नरसंहार से लेकर किसी के घर की बेवजह घंटी बजाने तक की गलतियां ढूंढ़ सकते हैं! हालांकि गोधरा कांड के बाद मुसलमानों का कत्ले-आम, लूटमार और स्त्रियों के साथ पाशविक सलूक किसी माफी से मिटने वाले दाग नहीं हैं। फिर भी, गलती का अहसास या पछतावा मुलजिम को कुछ हल्का कर देता है। क्या मोदी ‘गलती’ मानते वक्त आपको हल्के नजर आए? ‘चौपन इंच का सीना’ फुलाकर, गर्दन तानकर, मुट्ठी लहराकर वे कहीं से किसी ‘गलती’ के क्षमा-याचक नजर नहीं आते थे।
फिर चेहरा ही नहीं, किसी के क्रिया-कलाप भी उसके आचरण का पता देते हैं। मोदी सद्भावना की लाख यात्राएं करें, वैमनस्य उनकी पहचान से छूटता नहीं। मुसलिम समुदाय उन्हें उनके जलसे में इज्जत से टोपी पहनाए, वे उन्हें दुत्कार देते हैं। 182 सीटों के चुनाव में एक मुसलिम उम्मीदवार खड़ा नहीं करते। किसी मुसलिम बस्ती में चुनावी सभा नहीं करते। जाहिर है, वे एक समुदाय से घृणा का इजहार कर दूसरे समुदाय के मतों पर तिरना चाहते हैं। वक्त-जरूरत दंगे भी इस लक्ष्य-संधान में काम आते हैं। ऐसा नेता क्या सब भाजपाइयों को सुहाता होगा? भाजपा में सब तो सांप्रदायिक सोच वाले नहीं हैं। जो हैं, उनमें भी बहुतों के लिए मोदी-मार्का हिंदुत्व फायदे से ज्यादा शायद नुकसान देने वाला ही साबित हो।
नतीजों के रोज एक टीवी चर्चा में भाजपा के सुधांशु मित्तल साथ थे। वे मोदी समर्थक हैं। पर ऊपर-ऊपर यानी टीवी पर बोले कि मोदी की दिल्ली में आमद की बात कोरी मीडिया-चुहल है। राजस्थान में कोई सुधांशु जैसा भोलापन दिखाए तो उसे मुंह की जगह कान में कौर रखना कहते हैं। अर्थात्, आपको पता ही नहीं कि खाने के लिए मुंह होता है कान नहीं। क्या मोदी का पूरा चुनाव प्रचार, जीत के बाद का जश्न और तकरीर की ललकार वह मुद्दा बनाने के लिए काफी नहीं जो जीत के साथ बन चुका! जिसने उनकी अपनी पार्टी के दिग्गज नेताओं को भी एकबारगी अजीब बेचैनी में डाल दिया!
मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दिशा-निर्देश- दूसरे शब्द में धौंस- कभी मोदी को भाजपा के सिर पर बिठाल भी डालता है, तब भी राजग में मोदी की स्वीकार्यता शायद मुमकिन न हो। जब पहली दफा वे जीते, जद-एकीकृत के तत्कालीन सांसद और मंत्री स्व. दिग्विजय सिंह टीवी पर कहकर आए थे कि गांधीनगर में जो ढोल-नगाड़े बज रहे हैं, हम उनके साथ नहीं। फिर बिहार में नीतीश कुमार ने मोदी के प्रवेश पर रेखा खींची। अब पार्टी के अध्यक्ष और मोर्चे के संयोजक शरद यादव ने साफ कर दिया है कि मोदी अस्वीकार्य हैं। ऐसे में गुजरात की 26 लोकसभा सीटों में 15 जीतकर लाने वाले मोदी को संघ दिल्ली की देहरी पर धकेल भी दे तो भाजपा क्या उनके बूते अंगूरों का गुच्छा तोड़ लाएगी?
नरेंद्र भाई को कोई जा कहे कि अंगूर खट्टे हैं।
(जनसत्ता 23 दिसंबर, 2012:)

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