एक बातचीत


संवाद


राजनीति, होटल और कहानियां

कथाकार अरुण प्रकाश से पुष्पराज की बातचीत

अरुण प्रकाश
1948-2012

अरुण प्रकाश 4 वर्षों से ज्यादा समय से फेफड़े की बीमारी एम्फीसीमिया से ग्रस्त होकर कृत्रिम ऑक्सीजन के सहारे जीवित थे. उनका घर ही अस्पताल हो गया था. पत्नी वीणा प्रकाश अस्पताल की परिचारिका, नर्स की भूमिका में ऑक्सीजन की नली से उन्हें हर वक्त जुड़े रखने और उनकी पल-पल बढ़ती परेशानियों में उनकी निकट सहयोगी थीं. मुझे हर बार ऐसा लगता था कि उनके पास कुछ ऐसी बातें कहने के लिए हैं, जो उनने अब तक किसी से नहीं कही हो और अब वे मुझे बतायेंगे. मैं इसी उम्मीद, मोह के साथ उनके पास दौड़ता रहा. मैं कभी खाली नहीं लौटा, लेकिन कुछ बातें ऐसी थीं, जो वे मुझसे भी कह नहीं पाये. बीमारी के बाद अस्पताल की सुविधा के लिए दिलशाद-गार्डेन का घर छोड़कर मयूर विहार स्थित किराए के घर में वे रहने लगे.

एक दिन उनके घर में ऑक्सीजन सिलेण्डर और किचन का सिलेण्डर दोनों एक ही दिन बाजार से आया. मैंने हँसते हुए उनसे कहा- क्या हो गया, चूल्हे को जलाने के लिए सिलेण्डर, आदमी को जिलाने के लिए सिलेण्डर? एक घर में दो तरह के सिलेण्डर. उनने हँसते हुए कहा- देखो एक ही जलावन चूल्हे की आंच भी है और अर्थी की आग भी. इसलिए सिलेण्डर के प्रकार पर क्या चिंतन कर रहो हो.

10 दिसंबर 2010 की यह बातचीत मयूर विहार स्थित उनके आवास पर हमने लिपिबद्ध की है. उस समय उन्हें रोज 16-18 घंटे ऑक्सीजन की दरकार होती थी. बात करते-करते अचानक वे किसी दूसरे विषय पर चले जाते थे. दरअसल ऐसा ऑक्सीजन की कमी होने पर साँस फूलने से होता था. अरुण प्रकाश की अदम्य जीवन यात्रा पर यह संभवतः उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार है.

n अपने जीवन संघर्ष का वह हिस्सा जो कहीं दर्ज नहीं है? अरुण प्रकाश के कथाकार बनने की संघर्ष गाथा क्या है?

राजनीतिक माहौल में मैं पला-बढ़ा पर राजनीति में मेरी दिलचस्पी नहीं थी. मैंने हायर सेकेण्डरी मंझौल से की थी और ग्रेजुऐशन करने शाहपुर-पटोरी आ गया था. मैं विज्ञान का छात्र था और टायफाइड से लंबे समय तक बीमार रहने के कारण दो पेपर में फेल हो गया था.

अच्छा, मैंने यह नहीं बताया कि मैं शाहपुर-पटोरी कैसे और क्यों पहुँचा था? कर्पूरी ठाकुर ने अपने इलाके में डिग्री कॉलेज खोला था तो मेरे पिता से घरेलू रिश्ते की वजह से मुझे अपने कॉलेज में दाखिला कराया था. इस कॉलेज का नाम आचार्य नरेन्द्रदेव महाविद्यालय था. कर्पूरी जी ने मुझे एक साइकिल खरीद कर दी थी. जब कर्पूरी जी पटना से अपने इलाके आते थे तो मेरी साइकिल से क्षेत्र भ्रमण करते थे और लौटते हुए मछली साथ लाते थे. चाचा-भतीजा साथ-साथ मछली बनाते और खूब चाव से खाते थे.

राममनोहर लोहिया जाति-तोड़ो आंदोलन में शाहपुर-पटोरी आये थे. रेलवे मैदान में लोहिया की बड़ी रैली हुई थी. मुझे कर्पूरी चाचा ने लोहिया के साथ लगा दिया था. पहली मुलाकात में ही लोहिया ने मेरे स्वभाव और प्रकृति को देखते हुए पूछा- तुम क्यों आ गये सोशलिस्टों के साथ? मैंने कहा- मैं सोशलिस्ट बनने नहीं, जाति-तोड़ो आंदोलन में सहयोग करने आया हूँ. डॉ. ब्रह्मदेव और शरण जी जाति-तोड़ो आदोलन में स्थानीय संयोजक थे. उस जाति-तोड़ो रैली में 25-30 हजार लोग जुटे थे. कर्पूरी जी सिर्फ नाइयों के नेता नहीं थे, वह इस रैली से साबित हो गया था. मुझे आश्चर्य होता है कि कालांतर में समाजवादी जाति तोड़ने के बजाय जाति में खाद डालने लगे.
n आप क्या आर्थिक संकट की वजह से शाहपुर-पटोरी पढ़ने गये थे?

और वजह क्या हो सकती है? हमारे पास दूसरा विकल्प ही क्या था? पिताजी सोशलिस्ट पार्टी के होलटाइमर थे. उन्हें पूर्णकालिक कार्यकर्ता का मानदेय 40 रुपये मासिक मिलता था. इस 40 रुपये से परिवार चलाना और बच्चों को पढ़ाना कैसे संभव था? कर्पूरी जी खुद मुझे लेकर शाहपुर-पटोरी आये थे तो कॉलेज की फीस माफ कर दी गयी थी. शाहपुर-पटोरी का यह ढेढ़ साल ऐतिहासिक है. बीएससी फेल का तमगा और जाति-तोड़ो आंदोलन में शरीक होने का आत्मगौरव. तब मेरी उम्र 18 वर्ष की थी. कॉलेज में फेल होने से हौसला फेल नहीं हुआ था. मैं शाहपुर-पटोरी का आभारी और ऋणी हूँ. वहाँ विनोद जायसवाल मेरे दोस्त थे.
n आप अपने पिताजी के बारे में कुछ बतायेंगे? उन्होंने आपके जीवन को किस तरह प्रभावित किया है?

मेरे पिताजी का नाम रूद्रनारायण झा था. परंपरागत तौर से पुश्तैनी पंडिताई, पुरोहित उनके जीवन का पेशा होता, अगर वे राजनीति में नहीं आते. वे खूब पैदल चलते थे और फकीरी जिंदगी जीते थे. पिताजी 1967 में मुंगेर जिला संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव और प्रदेश चुनाव प्रभारी थे. मधु लिमये को मुंगेर लोकसभा से प्रत्याशी बनाया गया था. बिहार की सोशलिस्ट पार्टी का एक बड़ा हिस्सा नहीं चाहता था कि महाराष्ट्र के मधु लिमये को मुंगेर से चुनाव लड़ाया जाये. मधु लिमये की जीत को पिताजी ने प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था. मधु लिमये दो बार मुंगेर से सांसद हुए. पिताजी 1968 में राज्यसभा से सांसद हुए. 1970 में एक साजिश के तहत पिताजी की सड़क दुघर्टना में हत्या हुई, जिसे सड़क दुर्घटना में मौत कहकर प्रचारित किया गया. यह सड़क दुर्घटना नहीं, राजनीतिक हत्या थी. सीबीआई जाँच भी हुई पर दोषी कौन, यह रहस्य सार्वजनिक नहीं हुआ. किसी को सजा नहीं मिली. उनकी मौत के बाद पार्टी रैली के लिए रेल बुकिंग का बकाया किराया 38 हजार रुपये और उनके बैंक खाते में 238 रुपये मात्र, यही उनकी जिंदगी थी. उनकी मृत्यु के बाद एसएम जोशी ने पार्टी फंड से रेल किराया का बकाया चुकती कराया और मेरे परिवार को रेल ऋण के बोझ से मुक्ति मिली.
n जब पिताजी की मौत हुई उस समय आप क्या कर रहे थे? आपने खुद को किस तरह खड़ा किया?

शाहपुर-पटोरी से बीएससी फेल की उपलब्धि के साथ मैं अपने गाँव निपनिया, बरौनी वापस लौट आया था. सातवीं तक के बच्चों को विज्ञान-हिन्दी का ट्यूशन पढ़ाकर मैं खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था. जानकारी मिली कि भुवनेश्वर से बिना बीए किए बीएड करना संभव है. उधर प्रवेश परीक्षा दिया तो भुवनेश्वर में बीएड और पूसा एग्रीकल्चर में बीएससी, कृषि में एक साथ सफलता मिली. बीएड और बीएससी, कृषि दोनों में कंपीट होना उस समय बहुत सहज नहीं था. अब पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि मुझे पूसा या भुवनेश्वर पढ़ने के लिए भेज सकें. वे बेटे को पढ़ाने के लिए ना ही किसी के सामने हाथ पसार सकते थे, ना ही इसे मुद्दा बना सकते थे. उन्होंने सब कुछ सहज तरीके से स्वीकार किया और मुझे हताशा से बचाया.
मैं शाहपुर-पटोरी अपना अंक पत्र लेने गया तो मेरे हिस्से का स्कॉलरशिप आया हुआ था. उस स्कालरशिप के पैसे की मैंने कोई कल्पना भी नहीं की थी. इस पैसे से कॉलेज का कुछ बकाया भी चुकाया और उत्साहित होकर बेगूसराय जीडी कॉलेज में केमेस्ट्री ऑनर्स में दाखिला लिया. पास कोर्स में मैं फेल हो गया. इस बार मैं बीमार नहीं हुआ था. फेल होने का कीर्तिमान भी मुझे ही कायम करना था. इसी समय एक फिल्म में होटल मैनेजमेंट के लड़कों को डायनेमिक पर्सनॅाल्टी में देखा तो मन पुलकित हो गया. यह दौर जीवन में सपनों में कुछ नया करने का था. कहीं से जानकारी मिली कि पूसा इंस्टीट्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, दिल्ली में हायर सेकेण्डरी की डिग्री के आधार पर प्रवेश संभव है. पिताजी सांसद होकर दिल्ली आ गये थे तो दिल्ली में पढ़ाई अब संभव हो गया था. 1968 में दिल्ली में होटल मैनेजमेंट में अपना दाखिला हो गया. मैनेजमेंट की पढ़ाई के बीच ही पिताजी की हत्या हो गयी. पिताजी के न होने पर पढ़ाई पूरी करना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी.
अरुण प्रकाश

n पिताजी के गुजरने के बाद किस तरह पढ़ाई पूरी हुई और किस तरह जीवन को ठौर मिला?

मृत्यु से पूर्व पिताजी ने मेरी शादी करा दी थी. शादी की जिम्मेदारी और पढ़ाई को पूरा कर नौकरी ढूंढ़ने की बेचैनी थी. मैंने किन मुश्किलों और किन-किन के सहयोग से पढ़ाई पूरी की, यह वाकया एक अलग दास्तान है. पढ़ाई पूरी कर 1971 में हाथ में रिजल्ट लिये बिना मैं नौकरी ढूंढ़ने लगा था. 2-3 माह होटल क्लेरिजेज में वेटर की नौकरी की. फिर लोदी होटल में वेटर की नौकरी मिल गयी. लोदी होटल में अज्ञेय जी को खाना परोस कर खिलाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है. अज्ञेय जी इला डालमिया के साथ खाना खाने आये थे. अज्ञेय जी मुझे पहचानते थे, इसलिए कि अज्ञेय जी के भाई गोगरी जमालपुर में डॉक्टर थे. उनके डॉक्टर भाई मेरे पिताजी के द्वारा अज्ञेय जी के लिए कभी कुछ सामान भेजते थे तो मैं ही उन्हें पहुँचाने जाता था.

इला जी ने जब खाने के बाद टीप के पैसे ट्रे में रखे तो अज्ञेय जी ने उन्हें तत्काल रोक दिया था. मुझे वेटर के रूप में देखकर उनकी आँखें कुछ नम हो गयी थीं और खाने के टेबल पर वे कुछ गमगीन हो गये थे. होटल से छूटते हुए मुझे स्पर्श करते हुए उन्होंने आत्मीयता से मुझसे बातें की. मैं उन्हें गेट से बाहर छोड़ आया. उन्होंने छूटते हुए बहुत गंभीरता से मुझसे कहा- ‘कभी कोई परेशानी हो तो मुझे बता देना.’ भारतीय समाज में तब भी होटल में वेटर का काम सम्मानजनक पेशा नहीं था. मेरे लिए इससे ज्यादा सम्मानजनक कार्य दूसरा कुछ भी नहीं था. मुझे पहली बार वेटर का काम करते हुए आत्म-सम्मान महसूस हुआ था कि हिन्दी के एक महान लेखक अज्ञेय ने एक वेटर को इज्जत की नजर से देखा था. इसी रेस्तरां में मैंने कृष्ण मेनन को पहली बार देखा था.
n अरूण प्रकाश वेटर की जिंदगी से कब मुक्त हुए?

दो साल वेटर की शानदार जिंदगी जीने के बाद मैं पटना आ गया. 1972 में पटना के होटल नटराज में अस्टिेंट मैनेजर का काम मिल गया. इस होटल में मालिक के बाद प्रबंधन की मिल्कियत मेरे ही हाथ में थी. यहाँ आकर वेटर की जिंदगी से मुक्ति मिल गयी. 1973 में बरौनी फर्टिलाइजर में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी मिल गयी. अब हम भारत सरकार के गेस्ट हाउस में असिस्टेंट मैनेजर हो गये. नौकरी करते हुए जीवन थोड़ा व्यवस्थित हुआ तो सीपीआई के श्रमिक संगठन एटक के साथ कारखाना मजदूरों को संगठित करने में शक्ति लगायी. इस दौर में कारखाना से बाहर बीड़ी मजदूरों को संगठित करते हुए जीवन और समाज का अलग तजुर्बा हासिल हुआ. बरौनी में 12 वर्ष बिताने के बाद 1986 में फर्टिलाइजर में हिन्दी अधिकारी नियुक्त होकर दिल्ली आ गये.
n आपने लिखना कब शुरू किया?

लेखन मैं छात्र जीवन से ही कर रहा था पर कभी इस विधा को ज्यादा महत्व नहीं दिया. मंझौल के जगदम्बी पुस्तकालय, शोकहारा, बरौनी के संस्कृत महाविद्यालय पुस्तकालय और सर गणेशदत्त कॉलेज लाइब्रेरी से पढ़ते हुए मेरे भीतर जो पढ़ने की शैली विकसित हुई थी, बरौनी में कारखाना मजदूरों और बीड़ी मजदूरों के बीच नाटक करते हुए लेखकीय शिल्प की समझ विकसित हो रही थी. मेरे पिता साहित्य पढ़ने के शौकीन थे. वे जब भी यात्राओं से लौटकर घर आते थे तो साहित्यिक पत्रिकाएँ उनके झोले में भरी रहती थीं. मैंने प्रेमचंद, निर्मल वर्मा, चेखव, गोर्की सबको पढ़ा था पर मुझे अपना रास्ता खुद ही चुनना था. पढ़ना एक तहजीब है, उस पर चिंतन करना और अपने भीतर लेखकीय समझ विकसित करना दूसरी तहजीब है.

मैंने शुरू में कुछ कविताएँ अंग्रेजी में भी लिखीं. पटना के एक अंग्रेजी पत्र में कुछ अंग्रेजी कविताएँ छपी थीं. मेरी अंग्रेजी कविताई को किसी ने भाव नहीं दिया. मेरी पहली कहानी कॉलेज जीवन में ‘कहानीकार’ में छपी थी. पारिश्रमिक के 30 रुपये का मनिऑर्डर पहले मिल गया, कहानीकार की प्रति कुछ वर्ष बाद मिली थी. वह कहानी थी- ‘छाला’. बरौनी में जीवन कुछ व्यवस्थित हो रहा था पर जीवन राजनीतिक-सामाजिक कार्यों में ज्यादा गहन होता जा रहा था. ‘रक्त के बारे में’ 1978 में मेरा पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ. मुझे पक्का भरोसा हो गया था कि कविताएँ लिखकर हम सारी बात नहीं कह सकते हैं. फिर कविता पर गद्य का प्रभाव हुआ.
n कवि अरूण प्रकाश कथाकार के रूप में कब प्रकट हुए?

बरौनी में रहते हुए ‘कोंपल कथा’ का फ्रेम दिमाग में तैयार हो गया था. ‘कोंपल कथा’ लिखने में 5 साल का दिमागी व्यायाम चलता रहा. यह काम मेरा पहला तसल्ली-बख्श काम था. बेगूसराय के एक स्थानीय साप्ताहिक में ‘कोंपल कथा’ सीरिज में छप रहा था. अचानक बंद हो गया, क्योंकि संपादक के जाति संस्कार पर कथा के पात्र-काल विन्यास से चोट लगी थी. ‘कोंपल कथा’ को 5 बार रीराइट किया. एक मित्र थे, निरंजन जी, वे गुजर गये. उन्होंने कई बार हमारा लिखा पढ़ा और मुझे बार-बार ठीक से सोचना पड़ा.

कमलेश्वर जी ने ‘गंगा’ के संपादकीय में लिखा था कि पंजाब में मजदूर मारे जा रहे हैं. बिहार, उत्तर-प्रदेश के हिन्दी साहित्य में कुछ नहीं हो रहा है. मैंने संपादक जी को चिट्ठी लिखी- एक नहीं, 20 कहानियां इस विषय पर लिखी गयी हैं. मैंने भी एक कहानी लिखी है. कमलेश्वर जी का फोन आया- आप अपनी कहानी भेज दो. ‘भैया एक्सप्रेस’ तीन बार दूसरी जगह छपने के बावजूद 1987 में ‘गंगा’ में प्रकाशित हुई. अब मैं हिन्दी अधिकारी होकर दिल्ली में रह रहा था.

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‘भैया एक्सप्रेस’ गंगा में प्रकाशित होने से चर्चा शुरू हो गयी. छः माह बाद कमलेश्वर जी का फोन आया- तुम्हारी चर्चा हो रही है, तुम्हारी तारीफ हो रही है. तुम अपनी शक्ल भी तो दिखाओ? 1988 में पहली बार कमलेश्वर जी से आईटीओ में गंगा के कार्यालय में भेंट हुई थी. ‘कोंपल कथा’ का पूरा हिस्सा ‘सारिका’ में 1989 या 1990 के होली अंक में छपा. ‘कोंपल कथा’ काफी लोकप्रिय हुआ. जीवन की पहली कृति हुई, जिसने मुझे देश के सामने खड़ा कर दिया. एक कहानी और एक लघु उपन्यास से एक अनजान ग्रामीण आदमी को लोग जानने लगे. 1990-91 में वर्तमान साहित्य की ओर से ‘बेला ऐक्का लौट रही है’ कहानी को ‘कृष्ण प्रताप स्मृति’ कथा पुरस्कार दिया गया. 1991-92 में ‘जलप्रांतर’ से लोगों में विश्वास कायम हुआ.
अरुण प्रकाश

n क्या गाँव-गिरांव के काल-पात्र दिल्ली आने पर आपके लेखन में यथावत रहे?

दिल्ली आकर मैं दिल्ली में रच-बस गया. दिल्ली वाला हो गया तो दिल्ली के प्रभाव में एक दर्जन कहानियाँ लिखी. दिल्ली आकर, दिल्ली में बैठकर अपने गाँव को याद करना और लिखना मुझे अनुचित लगा. गाँव-देहात में जब जिया, तब लिखा. नगर-महानगर किसने बसाये. हम जहाँ रसते-बसते हैं, वहाँ जीवन बसाते हैं. यहाँ जीवन है, धड़कन है तो इसकी नब्ज को समझना ही लेखक का दायित्व है.

हमें अरूण प्रकाश जी ने कड़े हस्तक्षेप के साथ बीच में ही रोक दिया और कहा- अब आप अरूण प्रकाश से निजी-निजी बातचीत बंद करिये. आपको नहीं लग रहा है कि पूरी बातचीत को अब एक लेखक की आत्मप्रवंचना मान लिया जायेगा. चलिए एक वेटर के लेखक होने की कथा से वेटरों की जिन्दगी को क्या मिलेगा? कुछ दूसरी बातें भी करिये . जायका खराब मत करिये.
n आप हिन्दी साहित्य के बारे में क्या सोच रहे हैं? हिन्दी की बेहतरी के लिए आपके कुछ सुझाव हैं?

मैं स्वास्थ्य चिंता में हूँ. साहित्य की चिंता वे लोग कर रहे हैं, जो अखबारों की हेडलाइन में अपना नाम ढूंढ़ते हैं. वह साहित्य ताकतवर होता है, जो पाठकों को अधिक से अधिक संवेदित करती हो. संवेदित करने वाले साहित्य को लेकर एक तरह का चौकन्नापन रहता है. मध्यमवर्गीय साहित्यकारों के द्वारा क्या संवेदित करने वाला साहित्य रचा जा रहा है? हँसना, रोना, नाचना, गाना सब कुछ साहित्य की प्रेरणा से होता है. साहित्य प्रेरित-दुष्प्रेरित दोनों तरह के कार्य करता है. मुझे एक चिन्ता है कि गढ़ी में कलाकारों के लिए स्टूडियो है. आईएएस बिरादरी के लिए संस्कृति स्कूल बना दिया गया. पत्रकारों के लिए दारू पीने के अड्डे बनाये गये. लेखकों के लिए राइटर्स होम, राइटर्स सेन्टर देश के अलग-अलग हिस्सों में क्यों नहीं स्थापित हो रहे हैं. लेखक की मौत के 50 साल बाद लेखक की रॉयल्टी बंद क्यों? लेखक का साहित्य रॉयल्टी बंद होने के बाद सोशल प्रोपर्टी हो गया तो लेखक के लिए समाज-राष्ट्र की क्या जिम्मेवारी बनती है.

एक खिलाड़ी, एक पहलवान, एक गायक को 10 लाख रुपये का सम्मान और भारत के सर्वोत्कृष्ट लेखक को सर्वोच्च साहित्य सम्मान में एक लाख रुपये मात्र? साहित्य अकादमी सम्मान में एक लाख रुपये मात्र, यह शर्मनाक और हास्यास्पद है.

सरकार तमाम भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीन है लेकिन हिन्दी के प्रति उदासीनता कुछ ज्यादा ही है. कविता किस तरह लिखी जाये, कहानी किस तरह लिखी जाये, इसका प्रशिक्षण कौन दे रहा है? एक पाठक को किस तरह लेखन की तरफ प्रेरित किया जाये और एक नव-लेखक को क्या-क्या पढ़ना है, कौन तय कर रहा है?

अनुभव को साहित्य में बदलना मजाक नहीं है. जीवन अनुभव को सृजन में बदलने की तमीज ना हो तो कैसे लिखेंगे? लिखने-पढ़ने की संस्कृति खत्म हो जायेगी तो कुछ भी नहीं बचेगा. मराठी, असमिया में लेखकों का मेला लगता है. मलयालम में लेखकों का कॉपरेटिव बना हुआ है. हिन्दी तमाम भारतीय भाषाओं में विराट है तो इस विराट हिन्दी को बचाने की प्रयोगशालाएं कहाँ-कहाँ है? अपनी भारतीय भाषा-भाषी क्षेत्रों के कुछ अभिनव प्रयोग हमें हिन्दी क्षेत्रों में भी स्वीकार करने होंगे.
n क्या इंटरनेट-कम्प्यूटर से लिखने-पढ़ने की स्वाभाविक संस्कृति खत्म हो जायेगी?

मैं बार-बार कह रहा हूँ कि लिखने-पढ़ने की संस्कृति खत्म हो जायेगी तो कुछ भी नहीं बचेगा. मैं जब नहीं रहूँगा तब यह खतरा हर भारतीय भाषायी लेखक के सामने खड़ा होगा. लेकिन यह खतरा इंटरनेट-कम्प्यूटर की वजह से नहीं है. इंटरनेट-कंप्यूटर की क्या मजाल कि रचनाशीलता को खत्म कर दे. कैमरा आया तो पेंटरों ने कहा था- कैमरा पेटिंग को नष्ट कर देगा. कैमरे ने क्या तैलचित्र और पेंटिंग के महत्व, स्पेस को खत्म किया? एक ही रसोईघर में मिक्सी और सिल्ला-लोढ़ी साथ-साथ हैं.
n क्या बाजारवाद हिन्दी साहित्य का नुकसान कर रहा है? सरकारें तत्काल हिन्दी की बेहतरी के लिए क्या कर सकती हैं?

जो बाजार पर निर्भर करते हैं, बाजार में खेलते-कूदते, नाचते-गाते हैं, वे बाजारवाद का हौवा खड़ा करते हैं. दरअसल पूँजीबाद के समर्थक मध्यमवर्ग, बुद्धिजीवी समूह ने भारत में बाजारवाद को पवित्र शब्द की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा बना ली है. भारत में कभी-कभी भूख और अकाल भी पवित्र शब्द हो जाते हैं. शर्म की बात है कि देश के गोदामों में अन्न सड़ाये जा रहे हैं और लोग भूखे मर रहे हों. सुप्रीम कोर्ट ने गोदामों में अनाज सड़ने पर गुस्सा जताया, भूख से मरते लोगों ने गोदामों पर कब्जा क्यों नहीं कर लिया? शब्दफरोस, सुविधावादी वर्ग जो शब्दों से खेलता है, यही वर्ग है, जो भूख से मरते लोगों को अन्न के भंडारों पर हल्ला-बोल से रोकता है और ‘लोकतंत्र’ को भारतीय साहित्य का सबसे पवित्र शब्द घोषित करता है.

हिन्दी 10 राज्यों की मुख्य भाषा है. हिन्दी का फैलाव बहुत विराट है. हिन्दी साहित्यिक पत्रों के पास साधन नहीं हैं. साधन हों तो जरूर ये पत्र-पत्रिकाएं आम आदमी के पास गाँव-गिराँव तक पहुँच सकती हैं. दिल्ली, मप्र, उप्र की सरकारें साहित्यिक पत्रिकाओं को विज्ञापन देती हैं. बिहार, राजस्थान, हरियाणा की सरकारें हिन्दी भाषी पत्र-पत्रिकाओं को विज्ञापन नहीं देती हैं. हिन्दी भाषी सरकारें जिस भाषा में जनता से संवाद करती हैं, उस भाषा की पत्र-पत्रिकाओं के विस्तार पर जोर देना जरूरी है.

हिन्दी के बड़े प्रकाशक अपने उत्पाद के प्रचार में भी विज्ञापन नहीं देते हैं. मुझे चिंता है कि तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं के दाम रोज बढ़ते जा रहे हैं, और ग्रामीण और मेहतनकश पाठक समूह इनसे छूटते जा रहे हैं. सभी हिन्दी पत्र-पत्रिकाएं घाटे में चल रही हैं. इनके पीछे किसी उद्योग समूह की पूँजी नहीं है. लेखक अपने उद्यम से पत्रिका प्रकाशित करता रहे, यह कितना कठिन और मुश्किल है, सोचकर मैं कांप उठता हूँ. मैं उन तमाम लेखकों के प्रति आभारी हूँ, जो अपनी लगन, मेहनत और प्रतिबद्धता के साथ हिन्दी भाषा की एक पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं. हिन्दी को सरकारों ने नहीं, इन्हीं पत्र-पत्रिकाओं ने बचाये रखा है. उन सबको मेरा सलाम, जो हर हाल में जनता के हक में लिखने, बोलने और संघर्ष में सहभागी हैं.(रविवार.कॉम से साभार)
 

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