महात्मा गांधी ने इस विभाजन को निरस्त करने के लिए नई भाषिक अंतर्वस्तु और मुहावरे का प्रस्ताव किया था। उनकी दृष्टि में देश की एकता और अखंडता का प्रश्न सर्वोपरि था। गांधीजी द्वारा प्रस्तावित ‘हिंदुस्तानी’ को बौद्धिक, अकादमिक और विज्ञान के क्षेत्र में रुचि रखने वाले और इसमें सक्रिय मध्यवर्ग का समर्थन नहीं हासिल हो पाया। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में शुद्धतावादी रुझानों का जोर बना रहा। वास्तव में अपनी भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए परंपरागत ज्ञान स्रोतों को आधार रूप में अपनाना एक किस्म की मजबूरी भी थी। अंग्रेजी की पारिभाषिक शब्दावली का अनुवाद संस्कृत और फारसी की ज्ञान परंपरा के सहयोग से किया गया। इससे भाषा और शब्दावली अनुवाद की दुरूहता और अपरिचय के दुष्चक्र में फंसती गई। आजादी के बाद बदली हुई परिस्थितियों में हिंदी में अन्य आग्रहों ने भी घर करना शुरू किया। अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास और विस्तार से भाषा का एक बाजारोन्मुख रूप प्रचलित हुआ।
दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में संस्कृतनिष्ठ भाषाई रूप का अकादमिक इस्तेमाल बढ़ता गया। इस दौर में हिंदी ने संस्कृतोन्मुखता के माध्यम से ज्ञानोदय से जुड़ने का प्रयास किया। एक हद तक इसमें सफलता भी मिली। आत्माराम और बीरबल साहनी जैसे प्रख्यात रसायन विज्ञानियों और वनस्पतिशास्त्रियों ने हिंदी के माध्यम से शोध और शिक्षण को आगे बढ़ाया। पर मौजूदा दौर के बाजारवादी भूमंडलीकरण में मीडिया भाषा गढ़ने का प्रमुख साधन बन चुका है। उसकी गढ़ी हुई खिचड़ी भाषा स्रोतबहुलता से आक्रांत है। यह उथली और गंभीर संप्रेषण क्षमता से विपन्न भाषा है। इसकी भूमिका ज्ञानमूलक रूपों के विखंडन की अधिक है। बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भाषाओं की संप्रेषणीयता के ‘सूचनात्मक’ पहलू का विस्तार तो किया, पर इससे भाषाओं की ज्ञानमूलक संरचनाओं पर गंभीर खतरे भी मंडराने लगे हैं।
मीडिया की बहुराष्ट्रीय संस्कृति ‘पापुलर’ के नाम पर एक मिश्रित भाषा को बढ़ा रही है, जिसने संस्कृति के सामने ‘क्रियोलाईजेशन’ का संकट खड़ा किया है। निस्संदेह, एक बड़े दर्शक और पाठक वर्ग के कारण हिंदी की पहुंच इस बाजार तक हुई है। पर इसे भाषाई विकास का प्रमाण मानना एक भ्रम है। मीडिया का बाजार अन्य भाषाओं की घुसपैठ के बावजूद नव-औपनिवेशिक मूल्यों का वाहक है। इस दुनिया में भाषा और संस्कृति की गुणवत्ता को जांचने की कसौटी अंग्रेजी है, जो अन्य भाषाओं पर इसे आयद करती है। यह एक तरह की आस्वादमूलक गुलामी है, जिसे अंग्रेजी की दुनिया ने हम पर लाद रखा है।
इस बौद्धिक नवगुलामी से मुक्ति के लिए हिंदी को अपने उन सांस्कृतिक स्रोतों में लौटना होगा, जिसकी तरफ हम नवजागरण के दौर में बढ़ रहे थे। जनजागरण की अधूरी परियोजना को पूरा करने के लिए एक नई भाषा-चेतना की दरकार है, जो हमारी भाषाओं को ज्ञान-विज्ञान की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य से भर सके। हिंदी क्षेत्र में ज्ञानोदय की संभावना इस नई भाषा-चेतना से गहराई से जुड़ी है।
उत्तर-आधुनिक विमर्शों के नाम पर एकांगी पश्चिमोन्मुख विचारों के आधिपत्य की सैद्धांतिकी प्रभेद और ज्ञानमूलक विखंडन की प्रक्रिया को उपजा रहे हैं। इनका प्रतिरोध हमारी सुदृढ़ ज्ञानमीमांसीय और दार्शनिक परंपराओं की मदद से किया जा सकता है। क्लासिकी दौर में हिंदी के पास एक मूलगामी, तात्त्विक दर्शनधर्मी आधारभूमि थी। इसके पुनराविष्कार की आवश्यकता हमारे समग्र बौद्धिक उपक्रमों का सारतत्त्व है। विस्तारवादी मिथ्या प्रलोभनों की तुलना में चिंतन और ज्ञान की ठोस जमीन की तलाश ही हिंदी को ज्ञान और विचार की भाषा के रूप में रूपांतरित कर सकती है।
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