बीती सदी के नब्बे के दशक में जब देश नई आर्थिकी की आगोश में जाने की तैयारी कर रहा था, तब कई सवाल उठे थे। उनमें आर्थिक मसलों से जुड़े सवाल ज्यादा थे। लेकिन संस्कृति और भारतीय भाषाओं की भावी हालत को लेकर खासी चिंता जाहिर की गई थी। वह चिंता यह थी कि बाजार आधारित नई आर्थिकी न सिर्फ संस्कृति के क्षेत्र में दखल देगी, बल्कि देसी भाषाओं पर भी असर डालेगी।
नई आर्थिकी के पैरोकारों ने इन चिंताओं को निर्मूल करने में देर नहीं लगाई। उनके तर्कों का आधार बनी बाजार की भाषा के तौर पर चिह्नित होती हिंदी और उसका बाजार आधारित विस्तार। लेकिन उत्तर प्रदेश के दसवीं के नतीजों ने उस खतरे को पहली बार सतह पर ला खड़ा किया है, जिसकी आशंका नब्बे के दशक में भाषाशास्त्री उठा रहे थे। उत्तर प्रदेश में दसवीं की परीक्षा में इस बार 35 लाख परीक्षार्थियों ने किस्मत आजमाई, जिनमें से तीन लाख दस हजार परीक्षार्थी हिंदी में खेत रहे। मूल्यांकन की नवीनतम ग्रेडिंग पद्धति अपनाने के बाद भी डेढ़ हजार विद्यार्थियों को ही 91 फीसदी अंक हासिल हो पाए। हिंदी प्रदेशों में हिंदी के प्रति कैसा रवैया है, इसे भी उत्तर प्रदेश के दसवीं के नतीजों से परखा जा सकता है, जिसमें महज 40 फीसदी बच्चे ही पचास फीसदी अंक जुटा पाए। यह हालत तब है, जब विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान में ए ग्रेड हासिल करने का आंकड़ा कहीं ज्यादा है। यह सच है कि मीडिया विस्फोट और हिंदी प्रदेशों में बाजार की बढ़ती दखल से हिंदी को लेकर नई अवधारणा विकसित हुई है। उसे सिर्फ बोलचाल और सहज अभिव्यक्ति का ऐसा साधन माना जाने लगा है, जिसमें बाजार का काम चल सके। उसे विमर्श और गंभीर चेतना की वाहक भाषा मानने से लगातार परहेज किया जाता रहा है। फिर बाजारवाद के दौर में जिस तरह हिंदी बेहतर रोजगार के माध्यम से लगातार दूर हुई है, उसका भी मनोवैज्ञानिक असर हिंदीभाषी प्रदेशों के छात्रों में भी नजर आने लगा है। बाजारवाद और मीडिया विस्फोट के दौर में दो शब्द समाज के वर्गीकरण में अपनी खास भूमिका निभा रहे हैं। अपमार्केट और डाउनमार्केट की यह अवधारणा बेशक नई आर्थिकी के तहत समाज को दो हिस्सों में देखने का माध्यम बन गई है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि आम हिंदीभाषी डाउनमार्केट समझा जाता है और गलत अंगरेजी बोलने वाला अपमार्केट के खांचे में फिट माना जाता है। यही वजह है कि अब हिंदी को लेकर चलताऊ रवैया अख्तियार करने की आम मानसिकता हिंदी प्रदेशों में भी नजर आने लगी है। हिंदी से इतर दूसरी देसी भाषाएं उपराष्ट्रीयता और स्थानीय स्वाभिमान का एक हद तक अब भी प्रतीक बनी हुई हैं। लिहाजा उन्हें लेकर एक खास तरह का लगाव उन समाजों में बना हुआ है। लेकिन हिंदी भाषा बांग्ला, मराठी, कन्नड और तमिल जैसी नहीं है और न ही उसका अपना कोई स्थानीय क्षेत्र है। लिहाजा वह एक हद तक भले ही अभी तक राष्ट्रीयता की वाहक बनी हुई है, लेकिन उसकी तासीर बांग्ला, तमिल या दूसरी भारतीय भाषाओं जैसी नहीं है। लेकिन यह मानना कि बाजार ने वहां पैठ बनाकर उन्हें बदलने की कोशिश शुरू नहीं की है, बेमानी होगा। हां, उपराष्ट्रीयतावादी उभार के दौर में उनके साथ आसानी से छेड़छाड़ नहीं हो सकती। लेकिन हिंदी के साथ ऐसा नहीं है। बहुत पहले मशहूर कवि रघुवीर सहाय हिंदी को लेकर यह कह गए हैं कि हिंदी दुहाजू की बीवी है। उन्होंने जब यह कहा था, तब देश में नई आर्थिकी नहीं आई थी। लेकिन अब जमाना बदल गया है, लिहाजा हिंदी को लेकर हिंदी भाषी समाज के चलताऊ अंदाज को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन जिस तरह नई आर्थिकी को लेकर नए सिरे से सवाल उठने लगे हैं, उसमें कहीं न कहीं हिंदी समेत भारतीय भाषाओं का सवाल भी छिपा हुआ है। ऐसा नहीं कि हिंदी के इस हाल को लेकर लोगों में कसक नहीं है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हिंदी के जरिये खाने-कमाने वाले बुद्धिजीवियों और हिंदी के जरिये गांव-ढाणियों में अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने वाले हिंदी भाषी क्षेत्रों के राजनेताओं को ये सवाल परेशान करते हैं। (अमर उजाला से साभारJune 13, 2012 ) |
हिंदी प्रदेश में हिंदी का हाल : उमेश चतुर्वेदी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment