सबसिडी के डीजल से कार क्रांति-- सुनील 

Story Update : Tuesday, June 26, 2012    9:16 PM
car revolution from Subsidy diesel
अपने देश में कोई दूसरी क्रांति हो या न हो, पिछले कुछ समय से कार-क्रांति चल रही है। जो लोग बार-बार इस देश में आबादी की समस्या की चर्चा करते हैं, उनको कोलकाता के मनीषी अशोक सेकसरिया दुरुस्त करते हैं कि देश में जनसंख्या-विस्फोट नहीं, कार-संख्या विस्फोट हो रहा है। जनसंख्या वृद्धि की सालाना दर तो कम होते हुए डेढ़ फीसदी के करीब आ गई है, किंतु कारों की बिक्री में 20-25 फीसदी की सालाना दर से बढ़ोतरी हो रही है।

कुछ समय से इस कार क्रांति का एक और आयाम सामने आया है, वह है इसका डीजलीकरण। जैसे-जैसे सरकार ने पेट्रोल कीमतों पर अनुदान कम किया और अब उसे नियंत्रण-मुक्त कर दिया है, पेट्रोल और डीजल की कीमतों में अंतर बढ़ता गया है। अब यह अंतर 30 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा है। इसलिए देश का कार-उपभोक्ता अमीर तबका तेजी से पेट्रोल कारों की जगह डीजल कारों की ओर मुड़ रहा है। बाजार में 428 तरह की डीजल कारें आ चुकी हैं, जिनकी कीमत पौने चार लाख रुपये से लेकर सवा करोड़ रुपये तक है।

जब महंगा पेट्रोल इस्तेमाल करते थे, तो कार-मालिक किफायत के बारे में सोचते थे और छोटी कारें रखते थे। अब डीजल के सस्ता होने के कारण बड़ी कारों का प्रचलन बढ़ रहा है। पिछले वर्ष मंदी के बावजूद डीजल कारों की बिक्री 34 फीसदी बढ़ी। उनमें भी 2,000 सीसी से बड़े इंजन वाली कारों की बिक्री में 41 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। देश में जितनी डीजल कारें इस वर्ष बिकी, उनमें 40 फीसदी 1,500 सीसी से बड़े इंजन वाली कारें थीं। इससे ईंधन की खपत तो बढ़ ही रही है, वे सड़कों पर भी ज्यादा जगह घेर रही हैं।

कारों का यह डीजलीकरण तीन कारणों से देशहित में नहीं है। एक, अपने देश में डीजल पर काफी अनुदान है। पेट्रोल के मुकाबले उस पर टैक्स भी कम है और लागत से काफी कम कीमत पर यह बिकता भी है। यह मानकर डीजल सस्ता रखा गया है कि इसका उपयोग खेती, सार्वजनिक परिवहन तथा उद्योगों में होता है। डीजल महंगा होने से इन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा तथा अर्थव्यवस्था में महंगाई का नया चक्र शुरू हो जाएगा। इसीलिए नव उदारवादी सोच के बावजूद सरकार डीजल कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। किंतु इन कारों के माध्यम से इस अनुदान का एक हिस्सा देश के अमीरों की जेब में जा रहा है।

इस समय डीजल कारें देश की कुल डीजल खपत का 15 फीसदी निगल रही हैं और ट्रकों के बाद दूसरे नंबर का डीजल उपभोक्ता बन गई हैं। वर्ष 2012-13 में कुल डीजल अनुदान करीब एक लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। इसका मतलब है कि 15,000 करोड़ रुपये सीधे अमीर कार उपभोक्ताओं की मौज-मस्ती में जाएगा।

दो, सस्ते अनुदान प्राप्त डीजल के कारण कारों की संख्या बढ़ रही है और उनमें भी ज्यादा तेल खाने वाली बड़ी कारों का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। इससे देश की तेल खपत बढ़ रही है, जिसका 80 फीसदी हमें बाहर से आयात करना पड़ता है। तीन, डीजल कारें जो धुआं छोड़ती हैं, वह पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए ज्यादा नुकसानदेह है।

कारों में डीजल के उपयोग को नियंत्रित करने का एक तरीका यह है कि इस पर सीधे रोक लगा दी जाए। किंतु व्यवहार में इसे लागू करना संभव नहीं है। दूसरा तरीका है कि देश में डीजल कारों के उत्पादन एवं बिक्री पर ही पाबंदी लगा दी जाए। तीसरा और परोक्ष तरीका है कि डीजल कारों पर इतना टैक्स लगा दिया जाए कि वे काफी महंगी हो जाएं। डेनमार्क और श्रीलंका जैसे कुछ देशों ने यही किया है, हालांकि ब्राजील ने सीधे डीजल कारों पर ही प्रतिबंध लगाना उचित समझा है।

किंतु भारत सरकार इस तीसरे व आसान तरीके को भी अपनाने को तैयार नहीं है। पिछले दो-तीन बजट से उम्मीद की जा रही थी कि डीजल कारों पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाया जाएगा, किंतु ऐसा नहीं हुआ। जाहिर है कि देश में कार निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लॉबी बहुत तगड़ी है। पिछले दिनों जब पेट्रोल कीमत में भारी बढ़ोतरी से हो-हल्ला मचा और अनुदान और डीजल कारों का मुद्दा फिर सामने आया, तो पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री जयपाल रेड्डी ने डीजल अनुदान के दुरुपयोग के बारे में वित्त मंत्री को पत्र लिखा।

इसमें छोटी डीजल कारों पर एक लाख 70 हजार रुपये तथा मध्यम व बड़ी डीजल कारों पर दो लाख 55 हजार रुपये का अतिरिक्त शुल्क लगाने का सुझाव दिया गया। इसके पहले पेट्रोलियम पर बनी किरीट पारिख समिति ने भी फरवरी, 2010 में अपनी रपट में डीजल कारों पर 81 हजार रुपये का अतिरिक्त उत्पाद शुल्क लगाने का सुझाव दिया था। किंतु जयपाल रेड्डी के पत्र की जानकारी मिलते ही भारी उद्योग मंत्री प्रफुल्ल पटेल तुरंत कार कंपनियों के पक्ष में सामने आ गए।

विद्रूप यह है कि इसी नव उदारवादी सोच के तहत पिछले दो दशकों से यह राग अलापा जा रहा है कि अनुदानों का बोझ बहुत ज्यादा हो गया है, उसे कम करना चाहिए। इसी सोच के तहत गरीबी की हास्यापद रेखाएं खींची गई हैं और बड़ी संख्या में जरूरतमंद लोगों को सस्ते राशन व अन्य सुविधाओं से वंचित किया गया है। किंतु डीजल कारों के इस मामले से साफ है कि सरकार को अमीर लोगों की सबसे गैरजरूरी विलासिता के लिए भी खजाना लुटाने में कोई परेशानी नहीं है। क्या कोई अन्ना आंदोलन ऐसे देश विरोधी-जन विरोधी कामों के खिलाफ भी सामने आएगा? (अमर उजाला से साभार)

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