वैचारिक निठल्लों के भरोसे देश

भोपाल से कविमित्र ध्रुव शुक्ल, जो दीन-दुनिया की मुझसे कहीं अधिक खबर रखते हैं, फोन पर बहुत क्षोभ से यह कह रहे थे कि इधर सारा मीडिया  और टीवी चैनल देश की हालत पर तरह-तरह के विचार और मत प्रसारित कर रहे हैं, लेकिन इस सभी में कुछ टीवी एंकर, टिप्पणीकारों और विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की बहुतायत है | जैसे कि देश के बारे में सबसे अधिक और प्रामाणिक वही जानते हैं और इस देश में अन्य बुद्धिजीवी,समाजचिन्तक, अर्थशास्त्री, लेखक, विद्वान, इतिहासकार, दार्शनिक आदि नहीं हैं, जिन्हें देश की हालत का कुछ पता हो और जिनके पास कुछ बताने के लिए हो | फ़िल्मी अभिनेता और खिनाड़ी तक देश की स्थिति के बारे में अपनी राय बताते हैं, पर सच्चे विचारक के लिए हमारे मीडिया  में कोई जगह  नहीं बची है  | जाहिर है कि मीडिया  इस तरह की संकीर्णता से काम कर भारतीय सचाई की जटिलताओं और उनकी अनेकवर्णी समझ से मुँह फेर रहा है | कुछ कड़ा-तल्ख़, कुछ कठोर और क्रूर सच सुनने-सुनाने की ताब ख़त्म हो रही है, कम से कम मीडिया से | अधिकतर जो स्वयं देश की दुर्दशा के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं वे एक दूसरे से संवाद और बहस का नाट्य कर वैचारिक छद्म पैदा कर रहे हैं और उन्हें ऐसा करने की खुली छूट , बल्कि उल्लसित न्योता मिडिया दे रहा है | यह सोचकर दहशत होती है कि मीडिया और राजनीति का हमारे समय में विचित्र गठबंधन हुआ है, जिसके कारण व्यापक विचारहीनता व्याप्त है | दोनों का अधिकतर विचारविमुख या विचारशून्य होना उन्हें सहोदर बना रहा है: चोर-चोर मौसेरे भाई !
भारत जैसी सभ्यता इस समय इस अनोखे और अभूतपूर्व संकट से जूझ रही है कि उसकी युवा पीढ़ियाँ ज्यादातर यह मानने लगी हैं कि बिना सोचे-विचारे काम चल सकता है: मामला जुगाड़ का है, विचार का नहीं | विचाररिक्त सभ्यताएं जैसे कि दृष्टिहीन सत्ताएं अल्पजीवी होती हैं | भारत एक बड़ा बाज़ार भर नहीं है, वह एक विशाल परिसर है विचारों का,वैचारिक द्वंद्वों का | क्या हम इस समय सतहीपन- बाजारूपन और चतुर प्रबंधन से काम चला कर एक तरह की आत्महंता प्रवृति का इजहार कर रहे हैं ? इस आत्ममुग्धता, आत्मसंतुष्टि  और निपट बाजारूपन का कारगर प्रतिरोध जरूरी है | वह निश्चय ही है -- विकेन्द्रित, जगह-जगह बिखरा हुआ--- उसे सघन, सक्रिय और मुखर होना चाहिए | देश वैचारिक निठल्लों के भरोसे आखिर कब तक छोड़ा जा सकता है ? यह भी याद रखना चाहिए कि ऐसे अभागे समय में साहित्य और कलाएं अपने आप में प्रतिरोध हैं और उन्हें वैसे न देखना-पढ़ना कम देखना-पढ़ना है |__________

  •  अशोक वाजपेयी (जनसत्ता १९.८.१२ )

1 comment:

  1. bilkul thik kaha jee..pareshani yah hai ki jinki koi soch hi nahin hai we media ke liye sahaz sulabh ban gaye hai.....apadhapi ke yug me soch walon ko dhoondhne ka samay kiske paas bacha hai...jo mil gaya use bitha kar desh ke bigdte haalaton ka syappa pit liya...sthiti aur durbhagypurn tab ho jaati hai jab hum unse samsya ka hal nilwane ki koshish karte hain jo samsya ka karan hai...apki yah post jimmedar media wale bhi padhen to behter ho...apka tejpal negi

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