हंगरी में हमारी हिंदी: विजया सती


यह जानकर सुख होता है कि कई वर्षों से भारत से बाहर कई स्थानों पर हिंदी विधिवत पढ़ाई जा रही है। इन्हीं विधिवत शिक्षा केंद्रों में से एक है हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट का पुराना और प्रसिद्ध ओत्वोश लोरांद विश्वविद्यालय, जिसे संक्षेप में ऐल्ते भी कहते हैं। ओत्वोश लोरांद विश्वविद्यालय के भारोपीय अध्ययन विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ इंडो-यूरोपीयन स्टडीज) में हिंदी पढ़ाने का अवसर मुझे पिछले वर्ष जनवरी में मिला, जब मैं भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सौजन्य से विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में यहां पहुंची।

कहा जाता है कि हंगरी यूरोप के केंद्र में है और हंगरी के केंद्र में है बुडापेस्ट! यह विश्व की प्रसिद्ध पर्यटन नगरी है। यह शहर बुडा और पेस्ट दो हिस्सों में बंटा है। बुदा छोटी-छोटी पहाड़ियों वाला इलाका है, जबकि पेस्ट समतल है। दोनों के बीच में डेन्यूब नदी बहती है, जिसे यहां दूना कहते हैं।

दूना के तट पर एक ओर है देश का सुंदर ऐतिहासिक संसद भवन तथा दूसरी ओर है प्रसिद्ध चर्च और राजा का किला। इस शहर में कई संग्रहालय, शिक्षा संस्थान, शोध संस्थान और वीरों के स्मारक हैं। यहां की प्रसिद्ध शिक्षा संस्थाओं में से एक ऐल्ते विश्वविद्यालय की स्थापना 1635 में हुई। विश्वविद्यालय में तीस हजार से अधिक छात्र पढ़ते हैं। पहले इसमें केवल दो ही संकाय थे, लेकिन आज सत्तर से अधिक संकाय, संस्थान और विभाग हैं।

इस विश्वविद्यालय के कला संकाय के अंतर्गत आता है भारोपीय अध्ययन विभाग, जिसमें हिंदी और संस्कृत भाषाएं पढ़ाई जाती हैं। वर्तमान समय में हंगरी के सभी इंडोलॉजिस्ट इसी विभाग की देन हैं। विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ‘इंडोलॉजी’ अर्थात भारत विद्या विषय औपचारिक रूप से 1956 में शामिल किया गया था।

हिंदी का अध्ययन-अध्यापन पचपन वर्ष पुराना है। विभाग में आरंभिक पाठ्यक्रम ‘डिप्लोमा इन इंडोलॉजी’ था, जो एम.ए.के समकक्ष था। लेकिन 2006-07 से पूर्णकालिक बी.ए. इन इंडोलॉजी कोर्स उपलब्ध है। वर्ष 2009 से एम.ए. इंडोलोजी पाठ्यक्रम की शुरुआत भी हो चुकी है। यह दो विकल्पों के साथ है-क्लासिकल इंडोलॉजी अर्थात संस्कृत और ‘आधुनिक भारतीय अध्ययन’ यानी हिंदी। इस समय विभाग में बीस से अधिक छात्र-छात्राएं हिंदी और संस्कृत का अध्ययन कर रहे हैं।

हिंदी को मुख्य विषय के रूप में पढ़ने वाले छात्र हिंदी भाषा और साहित्य को विस्तार से पढ़ते हैं। पढ़ाई पूरी होने पर छात्रों को चुने हुए विषय पर शोध पत्र भी लिखना होता है। शोध पत्रों में से कुछ के विषय हैं-जैनेंद्र और उनका त्यागपत्र, महादेवी का गद्य, मन्नू भंडारी की कहानियां, मोहन राकेश की कहानियों में स्त्री-पात्र। छात्र भारतीय साहित्य का हंगेरियन भाषा में अनुवाद भी करते हैं। इन अनुवादों में प्रेमचंद और भीष्म साहनी की कहानियां, मनुस्मृति के कुछ अंश तथा हरिशंकर परसाई की रचनाओं के अनुवाद का पुस्तक रूप में प्रकाशन उल्लेखनीय हैं। विभाग का मूल चरित्र पारस्परिक संवाद और विश्वास की भूमि पर टिका है।

यहां अध्ययन के प्रति खुला दृष्टिकोण है, पाठ्यक्रम बहुत लचीला है, जिसमें विद्यार्थियों की अभिरुचि और सामयिकता का पूरा ध्यान रखा जाता है। उपयोगी और रोजगार से जुड़े विषयों का चयन किया जाता है। विभाग में भारत का अंतरंग परिचय देने का प्रयत्न भी किया जाता है। इस वर्ष प्रथम वर्ष के छात्रों को भारतीय पूजा-पद्धति का विशद ज्ञान जब दिया गया, तो उन्हें पूजा की सभी वस्तुएं-घंटी, शंख, रोली, चंदन, दीप आदि भी दिखाई गईं।

जब हिंदी साहित्य की कोई ऐसी रचना विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिसका संदर्भ उनके देश से मेल नहीं खाता, तो वे प्रश्न पूछते हैं। सर्वाधिक प्रश्न भारत में धर्म, जाति प्रथा, विवाह और नारी की स्थिति पर पूछे जाते हैं। विभाग में होली, दिवाली और हिंदी दिवस समारोह मनाया जाता है।

विदेशी भाषा के रूप में हिंदी पढ़ाना एक नया अनुभव है। इस रूप में केवल अपनी भाषा ही नहीं, अपने देश की संस्कृति, रीति-रिवाज और रहन-सहन की भी जानकारी शामिल होती है। यह जानना भी रोचक है कि हंगेरियन भाषा के कुछ शब्द न केवल उच्चारण की दृष्टि से, बल्कि अर्थ में भी हिंदी के बहुत निकट हैं। जैसे कुत्ता यहां कुथ्या है, थाल ताल है, जेब यब है और त्सुकोर का अर्थ शक्कर है।

कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जो हिंदी के लगते हैं, पर उनका अर्थ अलग है, जैसे हमारा विराग यानी वैराग्य यहां फूल बन जाता है। वर्ष 1926 में रवींद्रनाथ ठाकुर बुडापेस्ट आए थे, उनकी कविताओं के हंगेरियन अनुवाद उपलब्ध हैं। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद भी हुआ है। आज भारतीय साहित्य का हंगेरियन भाषा में और हंगेरियन साहित्य का हिंदी भाषा में अनुवाद काफी मात्रा में उपलब्ध है। ('अमर उजाला' से साभार)

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