कानून नहीं, नजरिया बदलने की जरूरत | |
Story Update : Tuesday, May 01, 2012 9:47 PM | |
डाना सिल्वा संगमा नया नाम है, जिसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पूर्वोत्तर के होने की कीमत चुकानी पड़ी है। एमबीए बनने का सपना लिए जो युवती एक दिन मेघालय से दिल्ली आई थी, उसे मानेसर स्थित अपने होस्टल में पंखे से लटककर जीवन खत्म कर देना पड़ा। बहुत सारी चीजें बदल गईं। नहीं बदलीं, तो पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति हमारी दुर्भावनाएं।
वहां से आई लड़कियों को, चाहे वे पढ़ाई करती हों या नौकरी, हम अजीब तरह से देखते हैं। कभी वे सहपाठियों-सहयोगियों की फब्तियों का केंद्र बनती हैं, कभी मकान मालिक की लालसा का शिकार, तो कभी देर रात असामाजिक तत्वों के हत्थे चढ़ जाती हैं। यहां तक कि व्यवस्था से न्याय की गुहार लगाते हुए भी वे कई बार सार्वजनिक उपहास का पात्र बन बैठती हैं। सात समंदर पार से आए गोरों के साथ भी हम ऐसा व्यवहार नहीं करते, जितना कि महज डेढ़ हजार किलोमीटर दूर के अपने ही भाई-बहनों के साथ। और यह दुर्व्यवहार भी इसलिए कि उनके नाक-नक्श हमारी तरह नहीं हैं! यह एक किस्म का फासीवाद है, जो कभी क्षेत्र के नाम पर सामने आता है, तो कभी भाषा के नाम पर, तो कभी पहचान के नाम पर। इसी फासीवाद का नमूना कभी महाराष्ट्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के खिलाफ दिख जाता है, तो कभी असम में हिंदी भाषियों के विरुद्ध। यानी भूमंडलीकरण के जिस दौर में पूरी दुनिया के विश्व ग्राम बन जाने की बात की जा रही है, उसी दौर में हम अपने यहां अलग-अलग क्षेत्रीय पहचान की आदिम लड़ाइयां लड़ रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों से दिल्ली में पढ़ने और नौकरी के लिए आने का सिलसिला दो-ढाई दशक से पुराना नहीं है। जाहिर है, वैश्वीकरण से आए सुखद बदलावों का लाभ लेने के कारण ही वे यहां आते हैं। आखिर यह देश उनका भी है। बल्कि पूर्वोत्तर की लड़कियों पर फब्तियां कसने वाले लोग भूलते हैं कि भौतिक समृद्धि के बावजूद उत्तर भारत में स्त्रियों को वह दरजा हासिल नहीं है,जो पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रों के स्त्रीसत्तात्मक समाज में औरतों को सहज हासिल है। दिवंगत डाना संगमा के चाचा और मेघालय के मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने इस तरह के भेदभाव पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कानून की मांग की है। लेकिन केवल कठोर कानून से काम नहीं चलेगा, नजरिया बदलने की भी जरूरत है। (अमर उजाला से साभार) |
सम्पादकीय
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हम गोरों के साथ क्या खा कर ऐसा कर सकते हैं , भाई हमारी बुक्कत ही क्या है ? हमारे सब्सिडीखोर सत्ताधारी गोरों के सामने कुत्तों की तरह कूँ कूँ करते दिखते हैं .हम पहाड़ी लोक्कथाओं का वो मनहूस मिथकीय प्राणी हैं जो भूख लगने पर अपने ही वाईटल अंगो को खा जाता है....... और जिस हम दिन चेतेंगे , लगभग खुद को *कंज़्यूम* कर चुके होंगे ..... बहुत देर हो चुकी होगी. यह अजीब विडम्बना है.... कानून नही , नज़रिया बदलना होगा . लेकिन कोई कानून बने तो हो सकता है हमारी चेतना पर कुछ असर हो. बल्कि यहाँ जो गलत कानून बने हैं ( AFSPA आदि ) उन पर ही पुनरविचार करें तो कुछ उम्मीद दिखने लगेगी.
ReplyDeleteho sake to is posT ka link mere blog par tippani ke roop me dijiye
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