यह छवि क्यों नहीं बदलती

अभय कुमार दुबे, सामाजिक विश्लेषक
Story Update : Tuesday, April 10, 2012    9:39 PM
Why not change the Identification
छवि राजावत को उस समय तक कोई नहीं जानता था, जब तक उन्होंने जयपुर के नजदीक अपने गांव सोडा का सरपंच बनने का फैसला नहीं कर लिया। इससे पहले वह दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज और पूना के मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट से पढ़ाई करने के बाद मोटी तनख्वाह वाली कॉरपोरेट नौकरी करती थीं।

जैसे ही एक आधुनिक, सुशिक्षित और तकनीकी रूप से कुशल महिला ने अपनी इन तमाम सुविधाओं का त्याग कर समाज सेवा के क्षेत्र में आने का फैसला किया, उसे हाथों-हाथ लिया गया। छवि को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर बोलने का मौका मिला और मीडिया ने हम सभी को बताया कि जींस और टॉप पहनने वाली यह युवती भारत में ग्रामीण विकास का नया चेहरा है। आज यही नया चेहरा हमारे पंचायती राज की मौजूदा दुर्दशा और निचले स्तर की नौकरशाही के वाहियात रवैये के कारण निराशा से जूझ रहा है।

उसका तजुर्बा उसे बता रहा है कि अपने गांव का विकास करने के लिए पंचायत द्वारा बनाई गई योजना के कार्यान्वयन के लिए न तो धन उपलब्ध है और न ही प्रशासन का सहयोग। छवि राजावत अपनी ईमानदारी, कर्मठता, प्रबंधकीय कौशल और ग्रामीणों के पूरे समर्थन के बावजूद पिछड़ेपन, गुरबत और उदासी की वह बर्फ नहीं तोड़ पा रही हैं, जो कई दशक से उनके गांव सोडा के जीवन पर जमी हुई है। बजाय इसके कि वह ‘ऐसा होना चाहिए’ की नुमाइंदगी करतीं, घटनाक्रम ने उन्हें ‘जो नहीं होना चाहिए’ का पर्याय बना दिया है।

दरअसल, छवि ग्राम-स्वराज की दुहाई देकर अपने गांव आई थीं। मगर मौजूदा पंचायती राज के ढांचे में ग्राम-स्वराज स्थापित करने के किसी उद्देश्य के लिए औपचारिक या अनौपचारिक किस्म की जगह भी है या नहीं? ध्यान रहे कि दुनिया का सबसे बड़ा सांविधानिक दस्तावेज होने के बावजूद भारत के संविधान में पंचायती राज संस्थाओं का जिक्र राजनीतिक संगठनों की श्रेणी में नहीं है। संविधान के मसविदे में तो पंचायती राज का ही जिक्र नहीं था।

इसे तो बाद में गांधीवादी विचार को गुंजाइश देने के लिए जोड़ा गया। जब योजना आयोग बना, तो उसे लगा कि राष्ट्रीय विकास में ग्रामीण जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए पंचायती राज की अवधारणा की शरण ली जानी चाहिए। ग्राम पंचायतों को छोटे-छोटे गणराज्यों के रूप में देखने का वैचारिक आग्रह पहले से मौजूद था। ‘पंच परमेश्वर’ जैसी मिथकीय कल्पनाएं थीं। गांधी ने अपने कल्पना-जगत में मौजूद एक आदर्श गांव के सपने को अपने आश्रमों के रूप में धरती पर उतारने का प्रयोग करके इन आग्रहों को वैधता प्रदान कर दी थी।

व्यवहार में जब बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिशों को लागू करके पचास के दशक में पंचायती राज आधारित विकेंद्रीकरण किया गया, तो पता चला कि ये संस्थाएं व्यक्तिगत पहलकदमी को खोलने के बजाय कलेक्टर और परगना अधिकारी की मुखापेक्षी हो गई हैं। पंचायतों और विकास-खंड के स्तर पर सक्रिय सरकारी तंत्र के बीच तालमेल अकसर गायब रहता है। ऊंची जातियां पंचायतों के माध्यम से ग्रामीण सत्ता पर अपनी इजारेदारी कायम करती जा रही हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल के दौरान हुए संविधान संशोधनों ने पंचायती राज संस्थाओं को पहले से अधिक मजबूत बनाया है, लेकिन छवि राजावत का उदाहरण बताता है कि उन संशोधनों को राजनीतिक विकेंद्रीकरण की तरफ एक अच्छा, लेकिन अधूरा कदम ही माना जा सकता है। पंचायतें अपने सभी कामों के लिए जिले की निचले स्तर की नौकरशाही पर निर्भर हैं। सरपंच का सचिव उसके अधीन नहीं होता। जिलाधिकारी जब चाहे सरपंच को हटा सकता है और पंचायत निलंबित की जा सकती है।

सरपंच को तीन हजार रुपये के वेतन का प्रावधान है। एसडीओ अगर चाहे, तो सरपंच के अधिकारों को बेकार बना सकता है। छवि राजावत की परेशानियों पर पहली नजर डालते ही स्पष्ट हो जाता है कि उनके इलाके का एसडीओ उन्हें कुछ नहीं करने दे रहा है। न तो वह अपने गांव के लिए मंजूरशुदा कोष प्राप्त कर पा रही हैं, और न ही ग्रामीणों के लिए पीने के पानी जैसे अधिकार पर अमल करने में सक्षम हैं।

छवि चूंकि बड़े अफसरों और राष्ट्रीय मीडिया से हिंदी-अंगरेजी में ठीक से बात कर सकती हैं, इसलिए उनकी शिकायत दूर तक पहुंच रही है। हो सकता है कि अंततः वह अपने मकसद में कामयाब हो जाएं, लेकिन देश के बाकी सरपंच क्या करेंगे? छवि खुद संपन्न परिवार से हैं और उनके घर वाले उनका खर्च उठा सकते हैं। उनकी सक्षम मित्रमंडली गांव के विकास में अपना कुछ निवेश भी कर सकती है। लेकिन दूसरे सरपंचों को तीन हजार रुपये माहवार में ही काम चलाना पड़ता है।

ऐसे तमाम सरपंच होंगे, जिन्हें एसडीओ की सरकारी ताकत के सामने घुटने टेकने पड़ते होंगे। जाहिर है कि पंचायती राज को प्रभावी बनाने के लिए अभी सैद्धांतिक और संस्थागत स्तर पर चिंतन और पहलकदमियों की जरूरत है। अगर ऐसा न किया गया, तो कोई भी छवि राजावत शहरी चमक-दमक और आराम छोड़कर किसी सोडा गांव की जनता की सेवा करने नहीं आएगी। (Amar Ujala 11.4.2012)

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