लाल्टू की एक कविता


आदमी और तानाशाह
आदमी तहरीर चौक पर मरता है, वह दिल्ली की चौड़ी सड़क किनारे मरता है। वह मरते हुए देखता है देश, धर्म, जाति, लिंग सब कुछ मरते हुए। मरने के बाद वह मर चुका होता है। उसका देश होता है असीम, काल अनंत। वह फिर से जनमता है, वह फिर से मरता है। फिर से जन्म लेते हैं देश, धर्म। फिर से मरते हैं। हर बार उसके मरते ही मर जाते हैं नक्शे, मरते हैं स्त्रोत। हर बार उसके मरते ही हम बच्चों से कहते हैं कि आसमान में अनगिनत तारों में कहीं भी उसे ढूँढ लो। उससे प्रेम करने वालों की स्मृति में वह कभी नहीं मरता। स्नेह से संभोग तक हर तरह का प्रेम जीवित रहता है। लोगबाग वर्षों तक उसके बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे वह कभी मरा ही नहीं। तानाशाह पालता है दरबारी कवि। दोनों एक जैसे मरते हैं। अभिशप्त लोक में उनकी आत्मा रहती है लावारिश। उनकी लाश पर नाच रहे लोगों की तस्वीरें छपती हैं। पर बच्चों के सामने हम कभी उनकी बात नहीं करते गोया वह मर कर भी बच्चों को हमसे कहीं छीन न लें। तानाशाह के मरने के बहुत पहले ही मर जाते हैं उसके प्रेम। मर चुके प्रेम को ढूँढता हुआ उसका प्रेत भटकता रहता है। किसी को परवाह नहीं होती कि वह कैसे मरा। वह मिला था गोलियों से भुना हुआ या अपने महल में गुलाम सिपाहिओं से डरता हुआ मरा वह। उसकी लाश मिली किसी सिपाही को या मेरे या तुम्हारे जैसे किसी राही को किसको परवाह। खबरों में आदमी कम और तानाशाह ज्यादा मरता है। कभी आमोदित, कभी अचंभित, हम उसकी लाश की देखते हैं तस्वीरें। आदमी हमेशा शहीद नहीं होता। आदमी मरने के बाद आदमी होता है। तानाशाह ज़िंदा या मुर्दा कभी आदमी नहीं होता। उसकी मौत को हमेशा कुत्तों की मौत कह देते हैं हम। इस बात से परेशान कुत्ते रातों को भौंककर हमारी नींद खराब करते हैं।

No comments:

Post a Comment

T