![]() |
पुष्पराज |
हम
क्या चाहते हैं? चौकीदारों को मारना या चोरों के आने पर बत्ती बुझाकर सो जाना.......... प्रभाष जोशी
![]() |
स्व० प्रभाष जोशी |
प्रभाष जोशी को एक संपादक, पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में
अलग-अलग देखने से बेहतर है,
उन्हें उसी तरह देखा जाये, जैसे वे सार्वजनिक तौर से दिख रहे थे। अगर आप संपादक
हैं तो उनके संपादकीय क्षमता से उन्हें आंक रहे होंगे। अगर आप एक सामाजिक
कार्यकर्ता हैं तो उनके साथ जनआंदोलनों में अपनी आपसदारी से उन्हें अपने आंदोलन का
निकट कार्यकर्ता मान सकते हैं। उनके साथ उठने-बैठने, ज्यादा से ज्यादा मिलने-जुलने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी से घनिष्ठता का अनुभव
बांचते हुए अपनी जिंदगी बिता सकते हैं। उनके घर-परिवार के सदस्य आदर्श पिता, आदर्श दादा, आदर्श अग्रज के रूप में उनसे जुड़े किस्सों को साझा कर सकते हैं। प्रभाष जोशी
का यह सही मूल्यांकन नहीं है। उनकी मृत्यु के बाद उनसे जुड़े संस्मरणों पर ढ़ेरों
आलेख प्रकाशित हुए हैं लेकिन अफसोस है कि आप-सबने अपने रूप-स्वरूप और अपने एजेंडे के
साथ उनकी चर्चा की है। मुझे अफसोस है कि भारतीय पत्रकारिता जब अपने पतनशील दौर से
गुजर रही हो,
तो ऐसे दौर में आप प्रभाष जोशी का मूल्यांकन
करने के लिए क्यों नहीं तैयार हैं? जाहिर है कि जिनके बताये रास्तों पर हम चलने की हिम्मत नहीं रखते हैं, उनके नाम से रास्तों का नाम तय कर लेते हैं।
इंदौर में प्रभाष परंपरा के आयोजन में प्रभाष जोशी को स्मरण करते हुए मध्य प्रदेश
के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उनके घर की तरफ मुड़ने वाले रास्ते का नामकरण
‘‘प्रभाष जोशी मार्ग’’ करने की घोषणा की तो उस उत्सवी माहौल में
मैंने आह न भरी। मुझे तब ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ था कि प्रभाष जोशी की लीक पर
चलने की बजाय हम उनके नाम के पत्थर रास्तों पर क्यों खड़े कर रहे हैं?
प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद जो श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गयी थी, उसके बुलावे का जो पत्र जारी किया गया, उसमें प्रभाष जोशी को ऋषि पत्रकार कहा गया। मैंने तब किन्हीं को टोकना उचित नहीं समझा था। आप-हम सब मर्माहत थे। ऐसे क्षण में सवाल-जवाब नहीं पूछे जाते। लेकिन दिन गुजरने के बाद आपस में मशविरा होना चाहिए कि हम जिनसे प्रेरित होते हैं, जिनकी श्रेष्ठता और महानता से आसक्त हम जन उनका नाम लेकर नत होते हैं, उन्हें ऋषि और देवता कहकर किसका भला कर रहे हैं? राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव सिमरिया की सभा में प्रभाष जोशी ने कहा था, “चिली जैसा एक छोटा देश अपने कवि पाब्लो नेरूदा का तीसरी बार मूल्यांकन कर चुका है, हमारे देश में अभी कबीर का ही ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ है तो दिनकर का मूल्यांकन तो अभी बहुत पीछे है।” कबीर का सही मूल्यांकन नहीं करने वाला देश क्या प्रभाष जोशी का मूल्यांकन करने के लिए अभी तैयार है?
प्रभाष जोशी की मौत के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के घटक लेखक संगठन जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव मुरली मनोहर प्र॰ सिंह ने ‘‘हद से अनहद गये’’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी। स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित प्रभाष जोशी पर केन्द्रित इस पुस्तक के संपादकीय में मुरली मनोहर प्र॰ सिंह ने प्रभाष जोशी की तुलना हारेस ग्रीले और चार्ल्स ए डाना से की थी। हारेस ग्रीले एक गरीब कृषक दंपति की संतान थे। ग्रीले न्यूयार्क ट्रिब्यून के संस्थापक संपादक थे। ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ 1840-1870 के दौर में अमेरिका के सर्वाधिक प्रभावशाली समाचार पत्रों में एक था, जिसने हारेस ग्रीले को अपने समय के महानतम संपादकों की श्रेणी में स्थापित किया था। चार्ल्स ए डाना न्यूयार्क ट्रिब्यून में 15 वर्ष प्रबंध संपादक रहे। ग्रीले और डाना आपसी विचारों में काफी भिन्न थे। एक पत्रकार के रूप में यूरोप की क्रांति को कवर करते हुए चार्ल्स ए डाना मार्क्स के संपर्क में आये और मार्क्स को लंदन संवाददाता के रूप में ट्रिब्यून से जोड़ा। डाना ने यह साबित कर दिखाया कि पत्रकारिता मात्र व्यवसाय न होकर एक मिशन है, जो किसी भी देश में राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के माध्यम के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करती है। मार्क्स और एंगेल्स की मान्यताओं से हारेस ग्रीले की सहमति नहीं थी, बावजूद मार्क्स और एंगेल्स के आलेखों को प्रकाशित करने में ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ ने दूसरे अखबारों की तुलना में सबसे ज्यादा स्पेस दिया था। आप कहेंगे हमने हारेस ग्रीले, चार्ल्स ए डाना की चर्चा इस समय क्यों कर दी। यह सवाल मैंने मार्क्सवादी विचारों के प्रवक्ता मुरली मनोहर प्र॰ से भी किया। कामरेड मुरली मनोहर ने यह संपादकीय तब लिखा, जब दिल्ली के बौद्धिक समाज में प्रभाष जोशी को ब्राह्मणवादी साबित करने की मुहिम चली थी। अपने संगठन के कृत्यों के विरूद्ध सबसे ज्यादा लिखने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी को कामरेड मुरली मनोहर प्र॰ आप विश्व के महानतम् पत्रकारों के साथ खड़ा कर रहे हैं, तो मूल्यांकन इस मोड़ से ही शुरू होना चाहिए।
मुरली मनोहर प्र॰ के अनुसार प्रभाष जोशी, हारेस ग्रीले, चार्ल्स ए डाना में एक तरह की समानताऐं थी। हारेस ग्रीले एक गरीब कृषक परिवार से आये थे, इसलिए ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ ने सबसे कमजोर, मेहनतकश के प्रति अपनी पक्षधरता दिखाते हुए परिवर्तन और संघर्ष का समर्थन किया। प्रभाष जोशी ने भारतीय उपमहाद्वीप के जनसंघर्षों का समर्थन करते हुए खेती और किसानी को बचाने के लिए जिस तरह की पत्रकारीय पक्षधरता दिखायी, उसका कोई सानी नहीं है। संभव है, आप प्रभाष जोशी के बारे में अपनी अलग राय रखते हों। हमारी समझ है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में, किसी भी भाषा में कार्यरत पत्रकार जिसके भीतर नौकरी पत्रकारिता से इतर बदलाव की छटपटाहट है, वह जरूर प्रभाष जोशी के किये से कुछ सीखना चाहेगा।
प्रभाष जोशी धोती पहनने वाले अंतिम संपादक-पत्रकार थे। धोती भारतीय किसानों का वस्त्र है। क्या प्रभाष जोशी कृषक पत्रकार थे? वे सदा खादी वस्त्र धारण करते थे। क्या प्रभाष जोशी सर्वोदयी पत्रकार थे? उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को रास्ता दिखाया तो क्या प्रभाष जोशी सिर्फ हिन्दी पत्रकार थे? प्रभाष जोशी की पत्रकारिता को आप उनकी भाषा, उनके प्रदेश और उनके बाहरी श्वेत-श्यामल आवरण से समझने की कोशिश करेंगे तो आपकी प्रभाष जोशी से मुलाकात नहीं होगी। प्रभाष जोशी ने कभी यह घोषणा नहीं की कि वे पत्रकारिता किसके लिए करते हैं? लेकिन आप उनके लिखे को पढ़ें तो यह बात साफ समझ में आती है कि उन्होंने किनके लिए कागद कारे किया। एक गरीब देश का विशाल भूखंड और उस भूखंड पर करोड़ों नागरिकों की भूख-जहालत का सवाल यक्षप्रश्न की तरह उनके समक्ष खड़ा होता रहता था और वे बेचैन होते रहते थे। वे बाहर से गांधीवादी दिखते थे, इसका मतलब यह नहीं कि वे गांधीवादियों की तरह लकीर के फकीर थे। उन्हें ऐसा लगता था कि देश की आजादी के इतने बरस हो गए और देश नहीं बदला। उन्होंने मुझसे एकबार कहा, “मैं सोचता था कि लिखने से देश बदल जायेगा, लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। क्या मैं भ्रम में था?” मैंने कहा, “आपने जितना गांधी का अनुसरण किया, अगर उस तरह मार्क्स का अनुसरण किया होता तो जरूर आपके लिखने से देश में क्रांति आ जाती।” उन्होंने कहा, “तुम्हारा आरोप सही है। मैंने मार्क्स को पढ़ा जरूर है, अनुसरण उतना नहीं किया, जितना गांधी का। मैं समझता हूँ, हमारे देश की समस्या को मार्क्सवादी ठीक से समझ नहीं पाये तो अपन मार्क्सवाद को नहीं समझ पाये तो बड़ा गुनाह नहीं किया। वक्त दो पंडत, मार्क्स ही रास्ता दिखायें तो अपना क्या बुरा? लेकिन इस देश को गर्त से ऊपर तो उठाना ही होगा।”
देश पर आपातकाल और इंदिरा की तानाशाही के विरूद्ध खड़ा प्रभाष जोशी, ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिख आतंकवाद की एक साथ मुखालफत कर रहे अखबार ‘जनसत्ता’ का संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी, बोफोर्स की दलाली को उजागर कर राजीव गांधी को सत्ता से उतार फेंकने का स्वप्न देखने वाला संपादक प्रभाष जोशी, बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर गुजरात के दंगों के विरूद्ध फासीवादी शक्तियों को चुनौती देने वाला पत्रकार प्रभाष जोशी। आपातकाल से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात के दंगों का काल भारतीय लोकतंत्र का आपत काल रहा। इस आपत काल में प्रभाष जोशी ने अपनी कलम को तलवार और अखबार को तोप की तरह इस्तेमाल किया। मशहूर पत्रकार एच॰ के दुआ ने पिछले साल मुझे बताया कि ‘‘सब लोग बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद और गुजरात के दंगों के विरूद्ध प्रभाष जोशी के लिखे को पढ़ते हैं लेकिन प्रभाष जोशी ने बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए जो अभियान चलाया था उसे कहीं दर्ज नहीं किया गया है। तब मुझे भी पता नहीं था कि राम मंदिर की बात करने वाले अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ध्वंस कर देंगे। प्रभाष जोशी निखिल चक्रवर्ती के साथ इस अभियान में लगे थे कि अयोध्या में कोई बीच का रास्ता निकल आये।’’
प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद जो श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गयी थी, उसके बुलावे का जो पत्र जारी किया गया, उसमें प्रभाष जोशी को ऋषि पत्रकार कहा गया। मैंने तब किन्हीं को टोकना उचित नहीं समझा था। आप-हम सब मर्माहत थे। ऐसे क्षण में सवाल-जवाब नहीं पूछे जाते। लेकिन दिन गुजरने के बाद आपस में मशविरा होना चाहिए कि हम जिनसे प्रेरित होते हैं, जिनकी श्रेष्ठता और महानता से आसक्त हम जन उनका नाम लेकर नत होते हैं, उन्हें ऋषि और देवता कहकर किसका भला कर रहे हैं? राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव सिमरिया की सभा में प्रभाष जोशी ने कहा था, “चिली जैसा एक छोटा देश अपने कवि पाब्लो नेरूदा का तीसरी बार मूल्यांकन कर चुका है, हमारे देश में अभी कबीर का ही ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ है तो दिनकर का मूल्यांकन तो अभी बहुत पीछे है।” कबीर का सही मूल्यांकन नहीं करने वाला देश क्या प्रभाष जोशी का मूल्यांकन करने के लिए अभी तैयार है?
प्रभाष जोशी की मौत के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के घटक लेखक संगठन जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव मुरली मनोहर प्र॰ सिंह ने ‘‘हद से अनहद गये’’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की थी। स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित प्रभाष जोशी पर केन्द्रित इस पुस्तक के संपादकीय में मुरली मनोहर प्र॰ सिंह ने प्रभाष जोशी की तुलना हारेस ग्रीले और चार्ल्स ए डाना से की थी। हारेस ग्रीले एक गरीब कृषक दंपति की संतान थे। ग्रीले न्यूयार्क ट्रिब्यून के संस्थापक संपादक थे। ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ 1840-1870 के दौर में अमेरिका के सर्वाधिक प्रभावशाली समाचार पत्रों में एक था, जिसने हारेस ग्रीले को अपने समय के महानतम संपादकों की श्रेणी में स्थापित किया था। चार्ल्स ए डाना न्यूयार्क ट्रिब्यून में 15 वर्ष प्रबंध संपादक रहे। ग्रीले और डाना आपसी विचारों में काफी भिन्न थे। एक पत्रकार के रूप में यूरोप की क्रांति को कवर करते हुए चार्ल्स ए डाना मार्क्स के संपर्क में आये और मार्क्स को लंदन संवाददाता के रूप में ट्रिब्यून से जोड़ा। डाना ने यह साबित कर दिखाया कि पत्रकारिता मात्र व्यवसाय न होकर एक मिशन है, जो किसी भी देश में राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के माध्यम के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करती है। मार्क्स और एंगेल्स की मान्यताओं से हारेस ग्रीले की सहमति नहीं थी, बावजूद मार्क्स और एंगेल्स के आलेखों को प्रकाशित करने में ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ ने दूसरे अखबारों की तुलना में सबसे ज्यादा स्पेस दिया था। आप कहेंगे हमने हारेस ग्रीले, चार्ल्स ए डाना की चर्चा इस समय क्यों कर दी। यह सवाल मैंने मार्क्सवादी विचारों के प्रवक्ता मुरली मनोहर प्र॰ से भी किया। कामरेड मुरली मनोहर ने यह संपादकीय तब लिखा, जब दिल्ली के बौद्धिक समाज में प्रभाष जोशी को ब्राह्मणवादी साबित करने की मुहिम चली थी। अपने संगठन के कृत्यों के विरूद्ध सबसे ज्यादा लिखने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी को कामरेड मुरली मनोहर प्र॰ आप विश्व के महानतम् पत्रकारों के साथ खड़ा कर रहे हैं, तो मूल्यांकन इस मोड़ से ही शुरू होना चाहिए।
मुरली मनोहर प्र॰ के अनुसार प्रभाष जोशी, हारेस ग्रीले, चार्ल्स ए डाना में एक तरह की समानताऐं थी। हारेस ग्रीले एक गरीब कृषक परिवार से आये थे, इसलिए ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून’ ने सबसे कमजोर, मेहनतकश के प्रति अपनी पक्षधरता दिखाते हुए परिवर्तन और संघर्ष का समर्थन किया। प्रभाष जोशी ने भारतीय उपमहाद्वीप के जनसंघर्षों का समर्थन करते हुए खेती और किसानी को बचाने के लिए जिस तरह की पत्रकारीय पक्षधरता दिखायी, उसका कोई सानी नहीं है। संभव है, आप प्रभाष जोशी के बारे में अपनी अलग राय रखते हों। हमारी समझ है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में, किसी भी भाषा में कार्यरत पत्रकार जिसके भीतर नौकरी पत्रकारिता से इतर बदलाव की छटपटाहट है, वह जरूर प्रभाष जोशी के किये से कुछ सीखना चाहेगा।
प्रभाष जोशी धोती पहनने वाले अंतिम संपादक-पत्रकार थे। धोती भारतीय किसानों का वस्त्र है। क्या प्रभाष जोशी कृषक पत्रकार थे? वे सदा खादी वस्त्र धारण करते थे। क्या प्रभाष जोशी सर्वोदयी पत्रकार थे? उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को रास्ता दिखाया तो क्या प्रभाष जोशी सिर्फ हिन्दी पत्रकार थे? प्रभाष जोशी की पत्रकारिता को आप उनकी भाषा, उनके प्रदेश और उनके बाहरी श्वेत-श्यामल आवरण से समझने की कोशिश करेंगे तो आपकी प्रभाष जोशी से मुलाकात नहीं होगी। प्रभाष जोशी ने कभी यह घोषणा नहीं की कि वे पत्रकारिता किसके लिए करते हैं? लेकिन आप उनके लिखे को पढ़ें तो यह बात साफ समझ में आती है कि उन्होंने किनके लिए कागद कारे किया। एक गरीब देश का विशाल भूखंड और उस भूखंड पर करोड़ों नागरिकों की भूख-जहालत का सवाल यक्षप्रश्न की तरह उनके समक्ष खड़ा होता रहता था और वे बेचैन होते रहते थे। वे बाहर से गांधीवादी दिखते थे, इसका मतलब यह नहीं कि वे गांधीवादियों की तरह लकीर के फकीर थे। उन्हें ऐसा लगता था कि देश की आजादी के इतने बरस हो गए और देश नहीं बदला। उन्होंने मुझसे एकबार कहा, “मैं सोचता था कि लिखने से देश बदल जायेगा, लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। क्या मैं भ्रम में था?” मैंने कहा, “आपने जितना गांधी का अनुसरण किया, अगर उस तरह मार्क्स का अनुसरण किया होता तो जरूर आपके लिखने से देश में क्रांति आ जाती।” उन्होंने कहा, “तुम्हारा आरोप सही है। मैंने मार्क्स को पढ़ा जरूर है, अनुसरण उतना नहीं किया, जितना गांधी का। मैं समझता हूँ, हमारे देश की समस्या को मार्क्सवादी ठीक से समझ नहीं पाये तो अपन मार्क्सवाद को नहीं समझ पाये तो बड़ा गुनाह नहीं किया। वक्त दो पंडत, मार्क्स ही रास्ता दिखायें तो अपना क्या बुरा? लेकिन इस देश को गर्त से ऊपर तो उठाना ही होगा।”
देश पर आपातकाल और इंदिरा की तानाशाही के विरूद्ध खड़ा प्रभाष जोशी, ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिख आतंकवाद की एक साथ मुखालफत कर रहे अखबार ‘जनसत्ता’ का संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी, बोफोर्स की दलाली को उजागर कर राजीव गांधी को सत्ता से उतार फेंकने का स्वप्न देखने वाला संपादक प्रभाष जोशी, बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर गुजरात के दंगों के विरूद्ध फासीवादी शक्तियों को चुनौती देने वाला पत्रकार प्रभाष जोशी। आपातकाल से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात के दंगों का काल भारतीय लोकतंत्र का आपत काल रहा। इस आपत काल में प्रभाष जोशी ने अपनी कलम को तलवार और अखबार को तोप की तरह इस्तेमाल किया। मशहूर पत्रकार एच॰ के दुआ ने पिछले साल मुझे बताया कि ‘‘सब लोग बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद और गुजरात के दंगों के विरूद्ध प्रभाष जोशी के लिखे को पढ़ते हैं लेकिन प्रभाष जोशी ने बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए जो अभियान चलाया था उसे कहीं दर्ज नहीं किया गया है। तब मुझे भी पता नहीं था कि राम मंदिर की बात करने वाले अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ध्वंस कर देंगे। प्रभाष जोशी निखिल चक्रवर्ती के साथ इस अभियान में लगे थे कि अयोध्या में कोई बीच का रास्ता निकल आये।’’
प्रभाष जोशी ने अपनी पहचान और सारे संपर्कों को बाबरी मस्जिद को बचाने में लगा
दिया था। उन्हें मालूम था कि अगर बाबरी मस्जिद विध्वंस होगा तो देश भीतर से टूट
जायेगा। प्रभाष जोशी ने बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए वामपंथी संगठनों के नेताओं
से भी संपर्क किया था। क्या भारत के कम्युनिस्टों को हिन्दूवादी फासिस्टों पर
भरोसा था कि वे बाबरी मस्जिद पर हमला नहीं बोलेंगे? या भारत के कम्युनिस्टों ने प्रभाष जोशी के नेतृत्व में जारी बाबरी मस्जिद
बचाओ अभियान में शामिल होना अपनी तौहीन मान लिया था? आप सोचिए कि अगर 1992
में बाबरी मस्जिद विध्वंस नहीं हुआ होता तो
गुजरात के दंगे भी शायद नहीं होते तो देश का परिदृश्य कैसा होता? प्रभाष जी इस बात से सशंकित थे कि देश में
हिन्दू आतंकवाद को अगर हम नहीं रोक पाये तो इस्लामिक आतंकवाद को बल मिलेगा।
प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद राम मंदिर के संदर्भ में फैसला सुनाते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीशों ने जिस तरह का फैसला सुनाया, उस फैसले के विरूद्ध प्रभाष जोशी जो लिख सकते थे, वह भारत के किसी पत्रकार ने नहीं लिखा। एक न्यायाधीश अपने फैसले में अयोध्या में रामलला का जन्म-स्थल लिख दे और देश चुप रह जाये? (सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित इतिहासकारों की खोजी समिति ने अयोध्या में राम के जन्म लेने का कोई प्रमाण प्राप्त न होने की रिपोर्ट दी थी।) नरेन्द्र मोदी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच टीम ने जब निर्दोष साबित कर दिया तब भी प्रभाष जोशी की कमी खल रही थी। नरेन्द्र मोदी को भारतीय पत्रकारिता आज प्रधानमंत्री का स्वप्न दिखा सकता है इसलिए कि आज नरेन्द्र मोदी की असल उजागर करने वाले प्रभाष जोशी नहीं हैं।
प्रभाष जोशी की मौत के बाद पत्रकारिता के भीतर की जैसे एक बुनियाद खिसक गयी। जनसत्ता से अवकाश के बाद वे मृत्यु से एक वर्ष पूर्व तक जनसत्ता के सलाहकार संपादक बने रहे। सलाहकार संपादक के रूप में भी ‘कागद कारे’ और आलेख लिखते रहे। ‘जनसत्ता’ के सलाहकार संपादक की बजाय वे किसी चैनल या अन्य बड़े अखबार के सलाहकार संपादक हो सकते थे, जहां से उन्हें दो-चार लाख रुपये मासिक आय हो सकती थी। पत्रकारिता के पेशे में रहते हुए भी पेशेवर होने से रोकने का आत्म-संघर्ष प्रभाष जोशी को भीड़ से अलग करता है। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि एक-एक ईंट को जोड़कर उन्होंने जिस ईमारत को खड़ा किया है, वह ईमारत उनके सामने ही ध्वस्त हो जायेगी। जिस अखबार को उन्होंने जनता की सत्ता घोषित किया था, वह अखबार उनके जीते जी जन से दूर हो जायेगा, यह सब देखकर वे जरूर विचलित होते थे। उन्होंने कभी ‘जनसत्ता’ के क्षरण पर कोई वक्तव्य नहीं दिया। उनके पास शिकवे आते थे, वे उसकी पड़ताल भी करते थे और चुप होकर रह जाते थे। उन्होंने अपनी मृत्यु से एक साल पहले 2008 में सलाहकार-संपादक के पद से इस्तीफा क्यों दिया? यह रहस्य सार्वजनिक होना अभी बाकी है। कभी-कभी वे खुद को लाचार महसूस करते थे। उन्हें ऐसा लगता था जैसे उनके चारों तरफ निकम्मे और जाहिलों की फौज खड़ी है।
‘जनसत्ता’ और प्रभाष जोशी की कुछ घटनाओं का मैं साक्षी हूँ। ‘जनसत्ता’ का इस्तेमाल हिन्दी के एक सबसे बड़े प्रकाशक को नुकसान पहुँचाने के लिए किया गया। इस प्रायोजित पत्रकारिता में एक स्वतंत्र पत्रकार को इस्तेमाल किया गया। देश की एक मशहूर लेखिका का प्रकाशन-अधिकार एक प्रकाशक से छीनकर दूसरे प्रकाशक को दिलवाने में ‘जनसत्ता’ के संपादक ने अपनी शक्ति क्यों लगायी? संयोग से उस समय मैं प्रभाष जोशी से किसी वजह से दुखी चल रहा था। मैंने एक प्रकाशक के व्यापारिक हित में ‘जनसत्ता’ के दुरूपयोग के रहस्य का सत्य अजीत भट्टाचार्जी से बताया। मेरी साख खतरे में थी। अगर मैंने इस प्रायोजित पत्रकारिता का रहस्य अजीत भट्टाचार्जी से नहीं बताया होता तो मान लिया जाता कि मैंने एक प्रकाशक से धन उगाही कर प्रायोजित खबर में अपनी भूमिका निभायी है। अजीत भट्टाचार्जी प्रभाष जी के गहरे दोस्त थे। जब भट्टाचार्जी ने प्रभाष जी को सब कुछ बताया तो प्रभाष जी ने मुझे बुलवाया और कहा-सब कुछ मालूम हो गया है। अफसोस है कि बंदूक चलाने के लिए तुम्हारा ही कंधा इस्तेमाल किया गया, अपने कंधे को मजबूत करो और इसे संभाल कर रखो, इन कंधो से बहुत सारे काम होने हैं। मेरे कंधे पर उनका हाथ था और वे कुछ नहीं बोल पा रहे थे। जब वे चुप होकर धरती की तरफ लगातार घूर रहे हों या आकाश को ताक रहे हों तो सोचिए अपनी तकलीफ को पचाने की कोशिश कर रहे हैं।
जब नंदीग्राम का कृषक संग्राम चल रहा था तो प्रभाष जी जनवरी महीने से ही नंदीग्राम पर नजर रख रहे थे। 2007 के जनवरी माह के पहले हफ्ते नंदीग्राम में पहला रक्तपात हुआ तो 11-12 जनवरी को लगातार दो किस्तों में उन्होंने किसानों के पक्ष में लेख लिखे। ‘‘लेकिन इस खेतिहर देश में खेती के रखवाले अब बचे कौन हैं?…..उद्योग-व्यापार को बढ़ावा देने के लिए खेती को कुरबान किया जा रहा है। मार्क्सवादी भी कोई खेती के रखवाले नहीं हैं। प्रभाष जोशी को मार्क्सवादियों से अपेक्षा थी कि वे खेती की हिफाजत करेंगे। प्रभाष जोशी का भरोसा टूटा, उसी तरह जैसे मेहनतकशों का भरोसा लाल झंडे से। प्रभाष जोशी ने जनवरी से नवंबर तक ‘जनसत्ता’ में सिंगुर-नंदीग्राम के मुद्दे पर एक दर्जन से ज्यादा आलेख लिखे। प्रभाष जोशी अब ‘जनसत्ता’ के संपादक नहीं थे पर पाठकों को अपेक्षा रहती थी कि ‘जनसत्ता’ की अन्य खबरें भी ‘‘कागद कारे’’ का अनुसरण करे। प्रभाष जी ने अपने लेखों से बुद्धिजीवियों को आगाह कराया था कि केन्द्र में सेज का सबसे ज्यादा विरोध करने वाली सी॰ पी॰ एम॰ नंदीग्राम में हर हाल में सेज विकसित करने के लिए किसानों से युद्ध रच रही है। ‘जनसत्ता’ का कोलकाता संस्करण नंदीग्राम की खबरें कोलकाता से फाइल करते हुए कृषक-संग्राम को तृणमूल-आतंक साबित करने पर तुला था। महाश्वेता देवी ने प्रभाष जी को फोन कर पूछा, “प्रभाष तुम्हारे जनसत्ता में क्या हो रहा है?” प्रभाष जी नंदीग्राम के बारे में कभी-कभी मुझसे भी सूचनाऐं लेते रहते थे। नंदीग्राम के कुछ लोग प्रभाष जी को फोन कर अपनी तईं भी सूचनाऐं देते रहते थे। उन्होंने मुझसे कहा, “तुम कोलकाता संस्करण के प्रभारी संपादक को फोन कर पूछो और उसे बताओ कि तुम जो नंदीग्राम से देख रहे हो, जनसत्ता उसकी उलट खबरें क्यों छाप रहा है?” मैंने जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के प्रभारी संपादक को फोन कर सच्चाई बताने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, “आपको पूछने का हक नहीं हैं।” मैंने प्रभाष जी से कहा कि आपके प्रभारी संपादक ने ऐसा कहा है। उनने कहा, “बहुत सही कहा है। वह जो कर रहा है, अपनी बात कह रहा है। तुम जो देख रहे हो, अपनी बात लिखो।” मुझे आश्चर्य हुआ कि प्रभाष जी क्या ‘जनसत्ता’ के ऊपर अपना नियंत्रण खो चुके हैं या सलाहकार-संपादक से अब सलाह लेना भी जनसत्ता-परिवार में जरूरी नहीं है। जब हमारी किताब छप गयी और मैंने इस घटना का जिक्र नहीं किया तो उन्होंने कहा, “सार्वजनिक हित के सत्य को उजागर करना ही पत्रकार का दायित्व है, तुमसे एक चूक हुई है।” क्या नंदीग्राम के मसले पर प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ के संपादक ओम थानवी को कोई राय दी थी? क्या ओम थानवी ने जनहित मामलों में प्रभाष जोशी की राय का महत्व देना बंद कर दिया था? ‘जनसत्ता’ के संपादकत्व से अवकाश के बाद जीवन पर्यन्त सलाहकार- संपादक की भूमिका निभाने का वादा करने वाले प्रभाष जोशी के लिए क्या यह पद अब असह्य हो गया था?
प्रभाष जोशी की मौत से ज्यादा हम ‘जनसत्ता’ की मौत पर क्यों रो रहे हैं? ‘जनसत्ता’ की प्रसार संख्या जनसत्ता के होने का मतलब नहीं था। ‘जनसत्ता’ सिर्फ हिन्दी पत्रकारिता ही नहीं अन्य भाषा-भाषायी पत्रकारिता के सामने मार्गदर्शक की भूमिका निभाता रहा था। प्रभाष जोशी के जीते जी ही ‘जनसत्ता’ का जन और जनांदोलनों से रिश्ता दिखावे भर का बच गया था। ‘जनसत्ता’ के संपादक ने जनसत्ता को अपनी दंभ की छड़ी की तरह इस्तेमाल करना सीख लिया था। प्रभाष जोशी की मृत्यु के एक पखवारे के अंदर ही जब देश भर से उनके चाहने वाले दिल्ली की श्रद्धांजलि सभा के लिए जुटे थे, उसी समय उ॰ प्र॰ के कृषक गन्ना का दाम बढ़ाने की मांग के साथ संसद घेरने पहुंचे थे। किसान अपने-अपने साथ कलव (कलेवा) की गठरी साथ लाये थे। हजारों किसानों के दिल्ली धमकने से दिल्ली का पसीना छूटा। चमकती हुई दिल्ली की सड़कें परेशान हुई तो अखबारों ने खबर लगायी----‘किसानों ने दारू पीकर दिल्ली में ऊधम मचाया।‘ ‘जनसत्ता’ ने भी किसानों के विरूद्ध खबर प्रकाशित की। मैं किसानों की रैली को अपनी आंखो से देख रहा था। पुलिस नहीं चाहती है कि हजारों-हजार किसान दिल्ली पहुंचे। अब पुलिस किसानों को दिल्ली की सड़क पर पांव रखने से रोकना चाहती है तो किसानों के विरूद्ध फर्जी आरोप लगाने जरूरी हैं। पुलिस की भाषा में ‘जनसत्ता’ किसानों को उपद्रवी छापेगा तो दूसरे अखबारों से क्या अपेक्षा रखी जाये? देश के जनांदोलनों की खबरें रोकने वाले ‘जनसत्ता’ ने इसी मई महीने में मेघा पाटकर के विरूद्ध नरेन्द्र मोदी के निकटस्थ सक्सेना के हवाले से असत्य खबर प्रकाशित की है। ‘जनसत्ता’ की छवि नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थक अखबार की रही है। अब बदले हुए हालात में प्रभाष जोशी की मौत के बाद ना सिर्फ ‘जनसत्ता’ के भीतर का अंतःअनुशासन टूटा है बल्कि दूसरे स्तंभकार पत्रकार-संपादकों में भी स्खलन आया है। देश के कई संपादक, वरिष्ठ पत्रकार जो प्रभाष जोशी को क्या जवाब देंगे, इस भय से अपनी जनपक्षकारीयता के साथ कायम थे, उन सबने उन्मुक्त होकर लिखने की आदत बना ली है। दिल्ली के चैनलों के नामचीन पत्रकार बिहार की चमकती सड़कों से गुजरते हुए अपनी कलम उसी तेज रफ्तार में चलाते हैं, जिस रफ्तार में पटना से भागलपुर की सड़क पर वाहन दौड़ रही हो। प्रभाष जोशी के दो प्रमुख शिष्य पत्रकार बिहार में नीतीश सरकार के प्रवर्तक-प्रचारक पत्रकार हो गये। नीतीश कुमार ने प्रभाष जोशी के निर्देशन में बिहार में एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय स्थापित करने की कार्य योजना को अंतिम मंजूरी दे दी थी। प्रभाष जोशी को अंतिम पटना यात्रा में बताया गया था कि सरकार ने इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के लिए 90 लाख रुपये की स्वीकृति कर दी है। प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन की ओर से मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मांग की गयी कि उस प्रस्तावित पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नामकरण प्रभाष जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय होना चाहिए। क्या उनकी मौत के साथ ही उस प्रस्तावित पत्रकारिता विश्वविद्यालय की मौत हो गयी? जानकार बताते हैं कि प्रभाष जोशी के ही बिहार स्थित दो शिष्य पत्रकारों के बीच कुलपति बनने की होड़ में प्रस्तावित पत्रकारिता विश्वविद्यालय की योजना को ग्रहण लग गया।
प्रभाष जोशी अपनी मौत से पूर्व पेड न्यूज के विरूद्ध राष्ट्रीय अभियान में लगे थे। मैंने उनसे कहा था कि आप ‘पेड न्यूज’ को ‘भुगतान समाचार’ या ‘भुगतान पत्रकारिता’ कहिये तो जनता ज्यादा ठीक से समझ पायेगी। ‘पेड न्यूज’ के विरूद्ध क्या करना चाहिए, इस संदर्भ में वे लगातार नयी-नयी योजनाऐं बना रहे थे। मैंने उनका संदेश कुलदीप नैयर तक पहुंचाया। कुलदीप जी पेड न्यूज के विरूद्ध थे। दोनों इस अभियान में साथ हुए। मैं उनसे कह रहा था कि आप ‘पेड न्यूज’’ को सबसे बड़ा मुद्दा बना रहे हैं, इधर बिहार में राष्ट्रीय आपदा आयी और आपके शिष्य पत्रकारों ने आपदा की खबर को भी सरकार-परस्त बनाने की भूमिका निभायी है। मैंने सबूत पेश किए कि 2007 में बिहार का जो अखबार बाढ़ रिर्पोटिंग में सरकार के विरूद्ध खबरें छाप रहा था, उसी अखबार ने 2008 में कोसी की राष्ट्रीय आपदा में सरकार के विरोध में खबरें ना छापने की हिदायत दी है। जब वे सच्चाई से वाकिफ हुए तो कहा कुलदीप जी से बात करो, वे क्या कहते हैं? तय यह हुआ था कि पेड न्यूज के मामले में सरकार को घेर कर एक कानून बनवा लें फिर बिहार-उ॰ प्र॰ के अखबारों को ठीक किया जायेगा। प्रभाष जी ने साफ कहा था कि अखबारों को पहले अल्टीमेटम दिया जायेगा कि जनता के पक्ष में खबरों को प्राथमिकता दो। अगर वे नहीं मानेंगे तो हम उनके दफ्तर को घेर लेंगे। शुरूआत पटना से ही करेंगे। किसी एक बड़े अखबार को घेर लो, दूसरे सब रास्ते पर आ जायेंगे। ऐसा ही लखनऊ, भोपाल, इंदौर में भी करेंगे। कुलदीप जी ने कहा था- बहुत सही है, मैं साथ रहूंगा। मुझे अफसोस है कि हमारी प्रिय पत्रकारिता को नकेल देने वाला एक स्वप्न अब किस्सों में ही दफन हो गया है।
प्रभाष जोशी ने बाबरी मस्जिद-विध्वंस से लेकर गुजरात के दंगों के विरूद्ध एक सौ से ज्यादा लेख लिखे और 200 से ज्यादा सांप्रदायिकता विरोधी सभाओं में वक्तव्य दिये। वे अंग्रेजी पत्रकारिता को छोड़कर हिन्दी पत्रकारिता में आये थे। उन्हें अपने वतन और अपनी भाषा से एक तरह का लगाव था। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का संपादक अंग्रेजी का ग्लैमर छोड़कर हिन्दी के एक नये अखबार ‘जनसत्ता’ से अपनी शुरूआत करे तो यह पत्रकारिता के परंपरागत सिद्धांतों के विरूद्ध था। उन्हें पक्का यकीन हो गया था कि सिर्फ लिखकर चीजों को नहीं बदल सकते हो तो उनके पास जाओ, जिनकी बात लिख रहे हो। उन्हें सबसे ज्यादा गरीबी और निरक्षरता हिन्दी प्रदेशों में दिखती थी। उनकी समझ थी कि जहां गरीबी और अज्ञानता ज्यादा होती है, वहां सांप्रदायिक शक्तियां ज्यादा पैठ बनाती हैं। नामवर सिंह के 75 वर्ष पर उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर ‘नामवर निमित्त’ का आयोजन क्यों कराया था? जिन्हें आप एक गांधीवादी संपादक-पत्रकार के रूप में जानते हैं, उन गांधीवादी प्रभाष जोशी ने कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुगामी नामवर सिंह को आगे रखकर ‘नामवर निमित्त’ की योजना क्यों बनायी थी? प्रभाष जी की समझ थी कि हिन्दुत्व के नाम पर जिस तरह पूरे देश में जहर घोला जा रहा है, उसमें हिन्दी-पट्टी को सतर्क होना जरूरी हैं। उन्होंने हिन्दी-पट्टी में नवजागरण का स्वप्न देखा था। वे कहते थे, नामवर सिंह की जगह हम दूसरे जीवित लेखक को भी चुन सकते हैं लेकिन मुझे हिन्दी का प्रतीक लेखक चाहिए, जिसे पूरा देश जानता हो और जिसकी छवि प्रगतिशील हो। पटना, बेगूसराय से लेकर हर जगह ‘नामवर निमित्त’ की आयोजन समिति बनाना फिर किसी बाहरी संसाधन के बिना स्थानीय सहयोग से सारे आयोजन को अंजाम देना। पटना में कौन-कौन वक्ता होंगे, बेगूसराय में कौन-कौन वक्ता होंगे। सब कुछ प्रभाष जोशी के संयोजन में गठित आयोजन समिति ने प्रभाष जी की राय से तय किया था। बेगूसराय में आयोजन की जिम्मेवारी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से विधायक राजेन्द्र राजन ने ली थी। ‘नामवर निमित्त’ के बेगूसराय में हुए आयोजन की पूरी तैयारी बेगूसराय के सी॰ पी॰ आई॰ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने साझा किया। प्रभाष जी कहते थे, अगर हमारे समाज में ‘नामवर निमित्त’ सरीखे आयोजन की परंपरा बन गयी तो धर्म के नाम पर कैंसर फैलाने वाले अपनी मौत खुद ही मर जायेंगे।
‘नामवर निमित्त’ की सफलता से प्रभाष जोशी काफी उत्साहित हुए और इस तजुर्बे से उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल को हिन्दी के महापुरुषों पर केन्द्रित आयोजन का प्रस्ताव दिया। 2008 में प्रभाष जोशी के मार्गदर्शन में विश्वविद्यालय ने गणेश शंकर विद्यार्थी पर कानपुर में, माघव राव सप्रे पर रायपुर में और बाबूराव विष्णु पराड़कर पर वाराणसी में विशेष कार्यक्रम आयोजित कराये। हिन्दी के महान संपादकों की विरासत को सहेजने और पत्रकारिता में उनके संघर्ष और अवदान से नयी पीढ़ी को अवगत कराने के इस श्रृंखलाबद्ध आयोजन की अगली कड़ी में 2009 में पटना में आचार्य शिवपूजन सहाय स्मृति व्याख्यानमाला आयोजित किया गया। प्रभाष जोशी ने 2 नवंबर 2009 को प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश महासचिव राजेन्द्र राजन से कहा था---“मैं विप्लवी पुस्तकालय जरूर आऊंगा लेकिन शर्त है कि ‘नामवर निमित्त’ की तरह पूरे देश में घूम-घूमकर ‘नागार्जुन निमित्त’ की योजना में आप आगे रहेंगे।” उन्होंने कहा था, “देखो नागार्जुन का देश पर बहुत बड़ा ऋण है। हम नागार्जुन शताब्दी वर्ष में ‘नागार्जुन निमित्त’ करेंगे।” राजन ने तब हामी भर दी थी। प्रभाष जोशी की योजना प्रभाष जोशी के साथ ही चली गयी। नागार्जुन शताब्दी वर्ष आया जरूर पर नागार्जुन को हमने देश में घूम-घूम कर उस तरह नहीं याद किया, जैसा प्रभाष जोशी चाहते थे। हिन्दी का नवजागरण किस तरह होगा? पत्रकारिता को नकेल देने का जिम्मा कौन लेगा? बहुत सारे सवाल हैं, जिसका जवाब सिर्फ प्रभाष जोशी ही दे सकते थे। प्रभाष जोशी के अधूरे सपनों को अंजाम देने के लिए स्थापित ‘प्रभाष परंपरा न्यास’ अगर सबसे कमजोर के हक की पत्रकारिता में मार्गदर्शक की भूमिका नहीं निभा पाया तो इस न्यास की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठेंगे।
‘‘आइने को झूठ बोलने की सलाह’’ (22 अप्रैल 1985) प्रभाष जोशी की 27 वर्ष पूर्व लिखी गयी बात पुरानी होकर भी नयी हैं-‘‘अखबार जिम्मेवार हों, सही और ठीक जानकारी पर ही खबरें छापें, ख़बरों के साथ राय न मिलाऐं और राय निष्पक्ष और निडर होकर दें। किसी दबाव, लालच या हित-स्वार्थ में पड़कर अपने पाठकों के भरोसे के साथ खिलवाड़ न करें। अपने को सबसे ऊपर न समझें और जो भी गलतियां हो, उन्हें विनम्रता के साथ स्वीकार करें। इन सारी कसौटियों पर एक साथ और हमेशा खरे उतरने वाले अखबार के संपादक और उसके सारे साथी कथाओं के हरिश्चन्द्र होंगे, मुद्रक- प्रकाशक धर्मराज युधिष्ठिर होंगे, वह स्वर्ग में निकलेगा और उसके पाठक देवता होंगे।…………….कोई भी सत्ताधारी अपने थेगले उघड़वाना मंजूर नहीं करता, इसलिए चाहता है कि प्रेस वही करे जो वह चाहता है। इमरजेंसी में एक नाटक कुछ जगह होता था। एक राजा के लड़के को कुत्तों के भौंकने से नींद नहीं आती थी, इसलिए फरमान निकल गया कि कुत्ते न पाले जाएं और आवारा कुत्तों को मार दिया जाय। हुक्म की तामील हुई। तब चोरियां बढ़ने लगी। एक बेचारी अकेली बुढि़या ने कुत्ता पाला। रात को चोर आए तो कुत्ता भौंकने लगा। पुलिस ने कुत्ते को मार दिया, चोरों को नहीं पकड़ा। हम क्या चाहते हैं? चौकीदारों को मारना या चोरों को आने पर बत्ती बुझाकर कोने में सो जाना?’’
प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद राम मंदिर के संदर्भ में फैसला सुनाते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीशों ने जिस तरह का फैसला सुनाया, उस फैसले के विरूद्ध प्रभाष जोशी जो लिख सकते थे, वह भारत के किसी पत्रकार ने नहीं लिखा। एक न्यायाधीश अपने फैसले में अयोध्या में रामलला का जन्म-स्थल लिख दे और देश चुप रह जाये? (सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित इतिहासकारों की खोजी समिति ने अयोध्या में राम के जन्म लेने का कोई प्रमाण प्राप्त न होने की रिपोर्ट दी थी।) नरेन्द्र मोदी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष जांच टीम ने जब निर्दोष साबित कर दिया तब भी प्रभाष जोशी की कमी खल रही थी। नरेन्द्र मोदी को भारतीय पत्रकारिता आज प्रधानमंत्री का स्वप्न दिखा सकता है इसलिए कि आज नरेन्द्र मोदी की असल उजागर करने वाले प्रभाष जोशी नहीं हैं।
प्रभाष जोशी की मौत के बाद पत्रकारिता के भीतर की जैसे एक बुनियाद खिसक गयी। जनसत्ता से अवकाश के बाद वे मृत्यु से एक वर्ष पूर्व तक जनसत्ता के सलाहकार संपादक बने रहे। सलाहकार संपादक के रूप में भी ‘कागद कारे’ और आलेख लिखते रहे। ‘जनसत्ता’ के सलाहकार संपादक की बजाय वे किसी चैनल या अन्य बड़े अखबार के सलाहकार संपादक हो सकते थे, जहां से उन्हें दो-चार लाख रुपये मासिक आय हो सकती थी। पत्रकारिता के पेशे में रहते हुए भी पेशेवर होने से रोकने का आत्म-संघर्ष प्रभाष जोशी को भीड़ से अलग करता है। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि एक-एक ईंट को जोड़कर उन्होंने जिस ईमारत को खड़ा किया है, वह ईमारत उनके सामने ही ध्वस्त हो जायेगी। जिस अखबार को उन्होंने जनता की सत्ता घोषित किया था, वह अखबार उनके जीते जी जन से दूर हो जायेगा, यह सब देखकर वे जरूर विचलित होते थे। उन्होंने कभी ‘जनसत्ता’ के क्षरण पर कोई वक्तव्य नहीं दिया। उनके पास शिकवे आते थे, वे उसकी पड़ताल भी करते थे और चुप होकर रह जाते थे। उन्होंने अपनी मृत्यु से एक साल पहले 2008 में सलाहकार-संपादक के पद से इस्तीफा क्यों दिया? यह रहस्य सार्वजनिक होना अभी बाकी है। कभी-कभी वे खुद को लाचार महसूस करते थे। उन्हें ऐसा लगता था जैसे उनके चारों तरफ निकम्मे और जाहिलों की फौज खड़ी है।
‘जनसत्ता’ और प्रभाष जोशी की कुछ घटनाओं का मैं साक्षी हूँ। ‘जनसत्ता’ का इस्तेमाल हिन्दी के एक सबसे बड़े प्रकाशक को नुकसान पहुँचाने के लिए किया गया। इस प्रायोजित पत्रकारिता में एक स्वतंत्र पत्रकार को इस्तेमाल किया गया। देश की एक मशहूर लेखिका का प्रकाशन-अधिकार एक प्रकाशक से छीनकर दूसरे प्रकाशक को दिलवाने में ‘जनसत्ता’ के संपादक ने अपनी शक्ति क्यों लगायी? संयोग से उस समय मैं प्रभाष जोशी से किसी वजह से दुखी चल रहा था। मैंने एक प्रकाशक के व्यापारिक हित में ‘जनसत्ता’ के दुरूपयोग के रहस्य का सत्य अजीत भट्टाचार्जी से बताया। मेरी साख खतरे में थी। अगर मैंने इस प्रायोजित पत्रकारिता का रहस्य अजीत भट्टाचार्जी से नहीं बताया होता तो मान लिया जाता कि मैंने एक प्रकाशक से धन उगाही कर प्रायोजित खबर में अपनी भूमिका निभायी है। अजीत भट्टाचार्जी प्रभाष जी के गहरे दोस्त थे। जब भट्टाचार्जी ने प्रभाष जी को सब कुछ बताया तो प्रभाष जी ने मुझे बुलवाया और कहा-सब कुछ मालूम हो गया है। अफसोस है कि बंदूक चलाने के लिए तुम्हारा ही कंधा इस्तेमाल किया गया, अपने कंधे को मजबूत करो और इसे संभाल कर रखो, इन कंधो से बहुत सारे काम होने हैं। मेरे कंधे पर उनका हाथ था और वे कुछ नहीं बोल पा रहे थे। जब वे चुप होकर धरती की तरफ लगातार घूर रहे हों या आकाश को ताक रहे हों तो सोचिए अपनी तकलीफ को पचाने की कोशिश कर रहे हैं।
जब नंदीग्राम का कृषक संग्राम चल रहा था तो प्रभाष जी जनवरी महीने से ही नंदीग्राम पर नजर रख रहे थे। 2007 के जनवरी माह के पहले हफ्ते नंदीग्राम में पहला रक्तपात हुआ तो 11-12 जनवरी को लगातार दो किस्तों में उन्होंने किसानों के पक्ष में लेख लिखे। ‘‘लेकिन इस खेतिहर देश में खेती के रखवाले अब बचे कौन हैं?…..उद्योग-व्यापार को बढ़ावा देने के लिए खेती को कुरबान किया जा रहा है। मार्क्सवादी भी कोई खेती के रखवाले नहीं हैं। प्रभाष जोशी को मार्क्सवादियों से अपेक्षा थी कि वे खेती की हिफाजत करेंगे। प्रभाष जोशी का भरोसा टूटा, उसी तरह जैसे मेहनतकशों का भरोसा लाल झंडे से। प्रभाष जोशी ने जनवरी से नवंबर तक ‘जनसत्ता’ में सिंगुर-नंदीग्राम के मुद्दे पर एक दर्जन से ज्यादा आलेख लिखे। प्रभाष जोशी अब ‘जनसत्ता’ के संपादक नहीं थे पर पाठकों को अपेक्षा रहती थी कि ‘जनसत्ता’ की अन्य खबरें भी ‘‘कागद कारे’’ का अनुसरण करे। प्रभाष जी ने अपने लेखों से बुद्धिजीवियों को आगाह कराया था कि केन्द्र में सेज का सबसे ज्यादा विरोध करने वाली सी॰ पी॰ एम॰ नंदीग्राम में हर हाल में सेज विकसित करने के लिए किसानों से युद्ध रच रही है। ‘जनसत्ता’ का कोलकाता संस्करण नंदीग्राम की खबरें कोलकाता से फाइल करते हुए कृषक-संग्राम को तृणमूल-आतंक साबित करने पर तुला था। महाश्वेता देवी ने प्रभाष जी को फोन कर पूछा, “प्रभाष तुम्हारे जनसत्ता में क्या हो रहा है?” प्रभाष जी नंदीग्राम के बारे में कभी-कभी मुझसे भी सूचनाऐं लेते रहते थे। नंदीग्राम के कुछ लोग प्रभाष जी को फोन कर अपनी तईं भी सूचनाऐं देते रहते थे। उन्होंने मुझसे कहा, “तुम कोलकाता संस्करण के प्रभारी संपादक को फोन कर पूछो और उसे बताओ कि तुम जो नंदीग्राम से देख रहे हो, जनसत्ता उसकी उलट खबरें क्यों छाप रहा है?” मैंने जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के प्रभारी संपादक को फोन कर सच्चाई बताने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, “आपको पूछने का हक नहीं हैं।” मैंने प्रभाष जी से कहा कि आपके प्रभारी संपादक ने ऐसा कहा है। उनने कहा, “बहुत सही कहा है। वह जो कर रहा है, अपनी बात कह रहा है। तुम जो देख रहे हो, अपनी बात लिखो।” मुझे आश्चर्य हुआ कि प्रभाष जी क्या ‘जनसत्ता’ के ऊपर अपना नियंत्रण खो चुके हैं या सलाहकार-संपादक से अब सलाह लेना भी जनसत्ता-परिवार में जरूरी नहीं है। जब हमारी किताब छप गयी और मैंने इस घटना का जिक्र नहीं किया तो उन्होंने कहा, “सार्वजनिक हित के सत्य को उजागर करना ही पत्रकार का दायित्व है, तुमसे एक चूक हुई है।” क्या नंदीग्राम के मसले पर प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ के संपादक ओम थानवी को कोई राय दी थी? क्या ओम थानवी ने जनहित मामलों में प्रभाष जोशी की राय का महत्व देना बंद कर दिया था? ‘जनसत्ता’ के संपादकत्व से अवकाश के बाद जीवन पर्यन्त सलाहकार- संपादक की भूमिका निभाने का वादा करने वाले प्रभाष जोशी के लिए क्या यह पद अब असह्य हो गया था?
प्रभाष जोशी की मौत से ज्यादा हम ‘जनसत्ता’ की मौत पर क्यों रो रहे हैं? ‘जनसत्ता’ की प्रसार संख्या जनसत्ता के होने का मतलब नहीं था। ‘जनसत्ता’ सिर्फ हिन्दी पत्रकारिता ही नहीं अन्य भाषा-भाषायी पत्रकारिता के सामने मार्गदर्शक की भूमिका निभाता रहा था। प्रभाष जोशी के जीते जी ही ‘जनसत्ता’ का जन और जनांदोलनों से रिश्ता दिखावे भर का बच गया था। ‘जनसत्ता’ के संपादक ने जनसत्ता को अपनी दंभ की छड़ी की तरह इस्तेमाल करना सीख लिया था। प्रभाष जोशी की मृत्यु के एक पखवारे के अंदर ही जब देश भर से उनके चाहने वाले दिल्ली की श्रद्धांजलि सभा के लिए जुटे थे, उसी समय उ॰ प्र॰ के कृषक गन्ना का दाम बढ़ाने की मांग के साथ संसद घेरने पहुंचे थे। किसान अपने-अपने साथ कलव (कलेवा) की गठरी साथ लाये थे। हजारों किसानों के दिल्ली धमकने से दिल्ली का पसीना छूटा। चमकती हुई दिल्ली की सड़कें परेशान हुई तो अखबारों ने खबर लगायी----‘किसानों ने दारू पीकर दिल्ली में ऊधम मचाया।‘ ‘जनसत्ता’ ने भी किसानों के विरूद्ध खबर प्रकाशित की। मैं किसानों की रैली को अपनी आंखो से देख रहा था। पुलिस नहीं चाहती है कि हजारों-हजार किसान दिल्ली पहुंचे। अब पुलिस किसानों को दिल्ली की सड़क पर पांव रखने से रोकना चाहती है तो किसानों के विरूद्ध फर्जी आरोप लगाने जरूरी हैं। पुलिस की भाषा में ‘जनसत्ता’ किसानों को उपद्रवी छापेगा तो दूसरे अखबारों से क्या अपेक्षा रखी जाये? देश के जनांदोलनों की खबरें रोकने वाले ‘जनसत्ता’ ने इसी मई महीने में मेघा पाटकर के विरूद्ध नरेन्द्र मोदी के निकटस्थ सक्सेना के हवाले से असत्य खबर प्रकाशित की है। ‘जनसत्ता’ की छवि नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थक अखबार की रही है। अब बदले हुए हालात में प्रभाष जोशी की मौत के बाद ना सिर्फ ‘जनसत्ता’ के भीतर का अंतःअनुशासन टूटा है बल्कि दूसरे स्तंभकार पत्रकार-संपादकों में भी स्खलन आया है। देश के कई संपादक, वरिष्ठ पत्रकार जो प्रभाष जोशी को क्या जवाब देंगे, इस भय से अपनी जनपक्षकारीयता के साथ कायम थे, उन सबने उन्मुक्त होकर लिखने की आदत बना ली है। दिल्ली के चैनलों के नामचीन पत्रकार बिहार की चमकती सड़कों से गुजरते हुए अपनी कलम उसी तेज रफ्तार में चलाते हैं, जिस रफ्तार में पटना से भागलपुर की सड़क पर वाहन दौड़ रही हो। प्रभाष जोशी के दो प्रमुख शिष्य पत्रकार बिहार में नीतीश सरकार के प्रवर्तक-प्रचारक पत्रकार हो गये। नीतीश कुमार ने प्रभाष जोशी के निर्देशन में बिहार में एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय स्थापित करने की कार्य योजना को अंतिम मंजूरी दे दी थी। प्रभाष जोशी को अंतिम पटना यात्रा में बताया गया था कि सरकार ने इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के लिए 90 लाख रुपये की स्वीकृति कर दी है। प्रभाष जोशी की मृत्यु के बाद बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन की ओर से मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मांग की गयी कि उस प्रस्तावित पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नामकरण प्रभाष जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय होना चाहिए। क्या उनकी मौत के साथ ही उस प्रस्तावित पत्रकारिता विश्वविद्यालय की मौत हो गयी? जानकार बताते हैं कि प्रभाष जोशी के ही बिहार स्थित दो शिष्य पत्रकारों के बीच कुलपति बनने की होड़ में प्रस्तावित पत्रकारिता विश्वविद्यालय की योजना को ग्रहण लग गया।
प्रभाष जोशी अपनी मौत से पूर्व पेड न्यूज के विरूद्ध राष्ट्रीय अभियान में लगे थे। मैंने उनसे कहा था कि आप ‘पेड न्यूज’ को ‘भुगतान समाचार’ या ‘भुगतान पत्रकारिता’ कहिये तो जनता ज्यादा ठीक से समझ पायेगी। ‘पेड न्यूज’ के विरूद्ध क्या करना चाहिए, इस संदर्भ में वे लगातार नयी-नयी योजनाऐं बना रहे थे। मैंने उनका संदेश कुलदीप नैयर तक पहुंचाया। कुलदीप जी पेड न्यूज के विरूद्ध थे। दोनों इस अभियान में साथ हुए। मैं उनसे कह रहा था कि आप ‘पेड न्यूज’’ को सबसे बड़ा मुद्दा बना रहे हैं, इधर बिहार में राष्ट्रीय आपदा आयी और आपके शिष्य पत्रकारों ने आपदा की खबर को भी सरकार-परस्त बनाने की भूमिका निभायी है। मैंने सबूत पेश किए कि 2007 में बिहार का जो अखबार बाढ़ रिर्पोटिंग में सरकार के विरूद्ध खबरें छाप रहा था, उसी अखबार ने 2008 में कोसी की राष्ट्रीय आपदा में सरकार के विरोध में खबरें ना छापने की हिदायत दी है। जब वे सच्चाई से वाकिफ हुए तो कहा कुलदीप जी से बात करो, वे क्या कहते हैं? तय यह हुआ था कि पेड न्यूज के मामले में सरकार को घेर कर एक कानून बनवा लें फिर बिहार-उ॰ प्र॰ के अखबारों को ठीक किया जायेगा। प्रभाष जी ने साफ कहा था कि अखबारों को पहले अल्टीमेटम दिया जायेगा कि जनता के पक्ष में खबरों को प्राथमिकता दो। अगर वे नहीं मानेंगे तो हम उनके दफ्तर को घेर लेंगे। शुरूआत पटना से ही करेंगे। किसी एक बड़े अखबार को घेर लो, दूसरे सब रास्ते पर आ जायेंगे। ऐसा ही लखनऊ, भोपाल, इंदौर में भी करेंगे। कुलदीप जी ने कहा था- बहुत सही है, मैं साथ रहूंगा। मुझे अफसोस है कि हमारी प्रिय पत्रकारिता को नकेल देने वाला एक स्वप्न अब किस्सों में ही दफन हो गया है।
प्रभाष जोशी ने बाबरी मस्जिद-विध्वंस से लेकर गुजरात के दंगों के विरूद्ध एक सौ से ज्यादा लेख लिखे और 200 से ज्यादा सांप्रदायिकता विरोधी सभाओं में वक्तव्य दिये। वे अंग्रेजी पत्रकारिता को छोड़कर हिन्दी पत्रकारिता में आये थे। उन्हें अपने वतन और अपनी भाषा से एक तरह का लगाव था। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का संपादक अंग्रेजी का ग्लैमर छोड़कर हिन्दी के एक नये अखबार ‘जनसत्ता’ से अपनी शुरूआत करे तो यह पत्रकारिता के परंपरागत सिद्धांतों के विरूद्ध था। उन्हें पक्का यकीन हो गया था कि सिर्फ लिखकर चीजों को नहीं बदल सकते हो तो उनके पास जाओ, जिनकी बात लिख रहे हो। उन्हें सबसे ज्यादा गरीबी और निरक्षरता हिन्दी प्रदेशों में दिखती थी। उनकी समझ थी कि जहां गरीबी और अज्ञानता ज्यादा होती है, वहां सांप्रदायिक शक्तियां ज्यादा पैठ बनाती हैं। नामवर सिंह के 75 वर्ष पर उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर ‘नामवर निमित्त’ का आयोजन क्यों कराया था? जिन्हें आप एक गांधीवादी संपादक-पत्रकार के रूप में जानते हैं, उन गांधीवादी प्रभाष जोशी ने कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुगामी नामवर सिंह को आगे रखकर ‘नामवर निमित्त’ की योजना क्यों बनायी थी? प्रभाष जी की समझ थी कि हिन्दुत्व के नाम पर जिस तरह पूरे देश में जहर घोला जा रहा है, उसमें हिन्दी-पट्टी को सतर्क होना जरूरी हैं। उन्होंने हिन्दी-पट्टी में नवजागरण का स्वप्न देखा था। वे कहते थे, नामवर सिंह की जगह हम दूसरे जीवित लेखक को भी चुन सकते हैं लेकिन मुझे हिन्दी का प्रतीक लेखक चाहिए, जिसे पूरा देश जानता हो और जिसकी छवि प्रगतिशील हो। पटना, बेगूसराय से लेकर हर जगह ‘नामवर निमित्त’ की आयोजन समिति बनाना फिर किसी बाहरी संसाधन के बिना स्थानीय सहयोग से सारे आयोजन को अंजाम देना। पटना में कौन-कौन वक्ता होंगे, बेगूसराय में कौन-कौन वक्ता होंगे। सब कुछ प्रभाष जोशी के संयोजन में गठित आयोजन समिति ने प्रभाष जी की राय से तय किया था। बेगूसराय में आयोजन की जिम्मेवारी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से विधायक राजेन्द्र राजन ने ली थी। ‘नामवर निमित्त’ के बेगूसराय में हुए आयोजन की पूरी तैयारी बेगूसराय के सी॰ पी॰ आई॰ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने साझा किया। प्रभाष जी कहते थे, अगर हमारे समाज में ‘नामवर निमित्त’ सरीखे आयोजन की परंपरा बन गयी तो धर्म के नाम पर कैंसर फैलाने वाले अपनी मौत खुद ही मर जायेंगे।
‘नामवर निमित्त’ की सफलता से प्रभाष जोशी काफी उत्साहित हुए और इस तजुर्बे से उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल को हिन्दी के महापुरुषों पर केन्द्रित आयोजन का प्रस्ताव दिया। 2008 में प्रभाष जोशी के मार्गदर्शन में विश्वविद्यालय ने गणेश शंकर विद्यार्थी पर कानपुर में, माघव राव सप्रे पर रायपुर में और बाबूराव विष्णु पराड़कर पर वाराणसी में विशेष कार्यक्रम आयोजित कराये। हिन्दी के महान संपादकों की विरासत को सहेजने और पत्रकारिता में उनके संघर्ष और अवदान से नयी पीढ़ी को अवगत कराने के इस श्रृंखलाबद्ध आयोजन की अगली कड़ी में 2009 में पटना में आचार्य शिवपूजन सहाय स्मृति व्याख्यानमाला आयोजित किया गया। प्रभाष जोशी ने 2 नवंबर 2009 को प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश महासचिव राजेन्द्र राजन से कहा था---“मैं विप्लवी पुस्तकालय जरूर आऊंगा लेकिन शर्त है कि ‘नामवर निमित्त’ की तरह पूरे देश में घूम-घूमकर ‘नागार्जुन निमित्त’ की योजना में आप आगे रहेंगे।” उन्होंने कहा था, “देखो नागार्जुन का देश पर बहुत बड़ा ऋण है। हम नागार्जुन शताब्दी वर्ष में ‘नागार्जुन निमित्त’ करेंगे।” राजन ने तब हामी भर दी थी। प्रभाष जोशी की योजना प्रभाष जोशी के साथ ही चली गयी। नागार्जुन शताब्दी वर्ष आया जरूर पर नागार्जुन को हमने देश में घूम-घूम कर उस तरह नहीं याद किया, जैसा प्रभाष जोशी चाहते थे। हिन्दी का नवजागरण किस तरह होगा? पत्रकारिता को नकेल देने का जिम्मा कौन लेगा? बहुत सारे सवाल हैं, जिसका जवाब सिर्फ प्रभाष जोशी ही दे सकते थे। प्रभाष जोशी के अधूरे सपनों को अंजाम देने के लिए स्थापित ‘प्रभाष परंपरा न्यास’ अगर सबसे कमजोर के हक की पत्रकारिता में मार्गदर्शक की भूमिका नहीं निभा पाया तो इस न्यास की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठेंगे।
‘‘आइने को झूठ बोलने की सलाह’’ (22 अप्रैल 1985) प्रभाष जोशी की 27 वर्ष पूर्व लिखी गयी बात पुरानी होकर भी नयी हैं-‘‘अखबार जिम्मेवार हों, सही और ठीक जानकारी पर ही खबरें छापें, ख़बरों के साथ राय न मिलाऐं और राय निष्पक्ष और निडर होकर दें। किसी दबाव, लालच या हित-स्वार्थ में पड़कर अपने पाठकों के भरोसे के साथ खिलवाड़ न करें। अपने को सबसे ऊपर न समझें और जो भी गलतियां हो, उन्हें विनम्रता के साथ स्वीकार करें। इन सारी कसौटियों पर एक साथ और हमेशा खरे उतरने वाले अखबार के संपादक और उसके सारे साथी कथाओं के हरिश्चन्द्र होंगे, मुद्रक- प्रकाशक धर्मराज युधिष्ठिर होंगे, वह स्वर्ग में निकलेगा और उसके पाठक देवता होंगे।…………….कोई भी सत्ताधारी अपने थेगले उघड़वाना मंजूर नहीं करता, इसलिए चाहता है कि प्रेस वही करे जो वह चाहता है। इमरजेंसी में एक नाटक कुछ जगह होता था। एक राजा के लड़के को कुत्तों के भौंकने से नींद नहीं आती थी, इसलिए फरमान निकल गया कि कुत्ते न पाले जाएं और आवारा कुत्तों को मार दिया जाय। हुक्म की तामील हुई। तब चोरियां बढ़ने लगी। एक बेचारी अकेली बुढि़या ने कुत्ता पाला। रात को चोर आए तो कुत्ता भौंकने लगा। पुलिस ने कुत्ते को मार दिया, चोरों को नहीं पकड़ा। हम क्या चाहते हैं? चौकीदारों को मारना या चोरों को आने पर बत्ती बुझाकर कोने में सो जाना?’’
पुष्पराज
No comments:
Post a Comment