चीड़ उगाकर हिमाचल ने खुद को आग के हवाले किया
(डीआर सकलानी,लेखक ,सरकाघाट से पत्रकार हैं)
वनों में आग प्रचंड होने का कारण 1960-70 के दशक में सरकार द्वारा चीड़ का पौधा विदेशों से लाकर प्रदेश की भूमि में रोपित कर दिया था, जो आज के दौर में घातक सिद्ध हुए हैं…
हिमाचल प्रदेश में जंगलों की भीषण आग तथा पेयजल संकट सरकार के लिए चुनौती बना हुआ है। ये दोनों मसले गर्मियों में इस तरह खड़े होते हैं कि सरकारी व प्रशासनिक व्यवस्था की पोल खुल जाती है। वनों में आग लगने से करोड़ों की वन संपदा ही नहीं, बल्कि जीव-जंतु, वन्य प्राणी देखते-देखते स्वाह हो जाते हैं। यही कारण है कि सरकार द्वारा वनों के विकास को रोकने के लिए अभी तक कोई ठोस व कारगर नीति नहीं बनाई गई। वनों में आग लगने का कारण प्राकृतिक मानवीय लापरवाही तथा भ्रष्टाचार को माना गया है। वनों को आग से किस प्रकार बचाया जा सकता है? क्या वनों को आग से बचाने का दायित्व वन विभाग, सत्ताधारी नेताओं और उन वन के ठेकेदारों का नहीं है, जो वनों से भारी भरकम आय प्राप्त करते हैं, लेकिन वनों को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। हिमाचल प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्र 55.673 वर्ग किलोमीटर में 37591 वर्ग किलोमीटर, यानी 67.5 प्रतिशत क्षेत्र कानूनी रूप से वन घोषित हैं। भारतीय वन संरक्षण की 1995 की वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के 12501 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में दस प्रतिशत से उससे अधिक घनत्व वाले वन हैं (इसमें 9565 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 40 प्रतिशत से अधिक घनत्व वाले वन हैं) तथा 2936 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 10 से 40 प्रतिशत घनत्व वाले वन हैं। इसके अलावा 1845 वर्ग किलोमीटर झाड़ीदार क्षेत्र 2936 वर्ग किलोमीटर कम घनत्व वाले क्षेत्र तथा 10730 वर्ग किलोमीटर ऐसा क्षेत्र है, जहां वृक्ष पैदा हो सकते हैं। कुल मिलाकर 15551 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वनीकरण करने की आवश्यकता है। देश में पाई जाने वाली 45000 वनस्पति प्रजातियों में से लगभग 3295 प्रजातियां यानी 7.32 प्रतिशत यहां पाई जाती हैं। हिमाचल प्रदेश के जंगलों में कई तरह के खनन, सड़क निर्माण, उद्योग व आग लगने की घटनाएं आग में घी का काम कर रही हैं। प्रकृति से छेड़छाड़ मानव जीवन के लिए खतरे की घंटी है। गर्मियों में फायर सीजन आते ही प्रदेश भर में कई जंगल धू-धू कर जलते रहते हैं। वन संपदा को आग से बचाने के लिए विभाग द्वारा पुख्ता इंतजाम की कमी के चलते सरकारी तंत्र की कुंभकर्णी नींद तब खुलती है, जब वन संपदा स्वाह हो जाती है। कुछ भी हो वन संपदा बचाना सरकार व विभाग के लिए सिरदर्द बना हुआ है। वनों में आग लगने से जहां असंख्य पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां स्वाह हो जाती हैं, वहीं दूसरी ओर पशु, पक्षी व अन्य प्राणी आग की भेंट चढ़ जाते हैं। बेजुबान, बेगुनाह असंख्य प्राणी तड़प-तड़प कर अपनी जान देते हैं। इससे जहां वन परिक्षेत्र घट रहा है, वहीं दूसरी ओर वन्य प्राणियों की दुर्लभ प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। हालांकि वनों की हिफाजत के लिए व आगजनी की घटनाओं पर रोक लगाने के लिए करोड़ों रुपए की वित्तीय सहायता मिलती है, लेकिन इसका सही इस्तेमाल नहीं होता, सही मायनों में यह राशि उन समाजसेवी संस्थाओं व अन्य लोगों तक नहीं पहुंच पाती, जो वनों की सुरक्षा के लिए सक्रिय योगदान दे रहे हैं। वनों में आग प्रचंड होने का कारण 1960-70 के दशक में सरकार द्वारा चीड़ का पौधा विदेशों से लाकर प्रदेश की नंगी धराओं में रोपित कर दिया था, जो आज घातक सिद्ध हुए हैं। इन चीड़ के जंगलों से जहां हमारे प्राकृतिक वन नष्ट हो गए, वहीं जंगलों से प्राप्त होने वाला पशु चारा भी चीड़ के पेड़ों से नीचे से लुप्त हो गया। चीड़ की पत्तियां तथा इन पेेड़ों से निकलने वाला बिरोजा आग में बारूद का काम करता है तथा देखते-देखते ही पूरा जंगल स्वाह हो जाता है। इस अवसर पर कोई भी जान जोखिम में नहीं डालना चाहता। जहां चीड़ के जंगल (मैन मेड चीड़) वन्य प्राणियों के लिए घातक सिद्ध हुए, वहीं दूसरी ओर यह जंगलों में पाई जाने वाली बेशुमार करोड़ों की औषधि जड़ी-बूटियां निगल गया। वन्य प्राणियों का आहार कम हो गया। वन्य प्राणियों की दुर्लभ प्रजातियों, जड़ी-बूटियों के लुप्त होने से मानव जीवन पर अच्छा खासा प्रभाव पड़ा है। प्रदेश के वन विभाग द्वारा बाबा आदम के जमाने से प्रदेश सरकार द्वारा घासनियों के परमिट चंद सिक्कों पर सरमाएदार लोगों को जारी किए गए हैं, लेकिन इन घासनियों को कटा परमिट धारकों ने अपनी ही मिलकीयत भूमि की तरह बना डाला। हालांकि प्रदेश की वन संपदा को आग से बचाने के संबंध में वर्ष 2006 में सुझाव दिए गए थे तथा कहा गया था कि वनों से लाभ उठाने वाले गांवों व पंचायत सदस्यों व वन अधिकारियों की क्षेत्रीय समितियां वनों की सुरक्षा व विकास में भागीदारी सुनिश्चित कराने के बावजूद कोई प्रयास नहीं हुए। सरकार के किसी भी कार्यक्रम व अभियान में स्थानीय लोगों की सहभागिता होना लाजमी है। समाज के प्रत्येक वर्ग को वनों के संरक्षण के लिए एकजुट होकर आगे आना चाहिए, ताकि वनों का अस्तित्व व हरियाली बरकरार रह सके। (Divya Himachal)
May 31st, 2012
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