लेख- मृणाल पांडे

साक्षरता और शिक्षा के बीच---- मृणाल पांडे
Story Update : Saturday, December 24, 2011 9:14 PM

पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय संस्था पीसा (प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्डूटेंट असेसमेंट) की सालाना रपट के नतीजे आ गए हैं। वर्ष 2000 से यह संस्था चौहत्तर देशों में नई पीढ़ी को दी जा रही शिक्षा के स्तर पर भरोसेमंद ब्योरे जारी करती रही है। इस बरस भारत के दो अग्रगामी राज्य, तमिलनाडु और हिमाचल इसमें पहली बार शामिल किए गए हैं। लेकिन शिक्षाधिकार संबंधी कानून और सर्वशिक्षा अभियान सरीखी मुहिमों पर अपनी पीठ थपथपाने के बावजूद हमारे लिए रपट के ताजा नतीजे शर्मनाक तो हैं ही, चिंताजनक भी हैं।

सो इसलिए, कि भष्टाचार, संसदीय कायदों और लोकपाल में आरक्षण लाने जैसे विषयों पर बुरी तरह लड़ते-भिड़ते हमारे नेता शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम मसलों पर गंभीर सर्वदलीय विमर्श करना लगभग पूरी तरह से भुला चुके हैं। गणित और विज्ञान पर पकड़ और पढ़ने की क्षमता के पैमानों पर अपनी बेहतरीन सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के बल पर चीन इस फेहरिस्त में शीर्ष पर है, जबकि हमारे घरेलू तौर से शिक्षा मानकों पर सबसे उन्नत माने जाने वाले दो राज्य तमिलनाडु और हिमाचल इस फेहरिस्त में बहत्तरवीं और तिहत्तरवीं पायदान पर हैं।

उद्योग जगत के विशेषज्ञ भी कहते रहे हैं, कि सवा अरब आबादी वाले भारत में सभी बड़ी कंपनियों के लिए अपने-अपने उपक्रम चलाने के लिए सुशिक्षित स्टाफजुटा पाना कठिन होता जा रहा है। हर कहीं छात्रों की बढ़ती संख्या के कारण प्रबंधन और उच्च शिक्षा संस्थानों में सीटों की तादाद तो बढ़ाई जा रही है, पर इसी के साथ इतने छात्रों को तालीम देने लायक अर्हता रखनेवाले शिक्षकों की घोर कमी महसूस की जा रही है और महत्वपूर्ण फैकल्टियों के अनेक पद खाली पड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय मानकों पर राष्ट्रीय औसत से कहीं ऊंची साक्षरता दर वाले तमिलनाडु के ग्रेजुएट छात्रों में से सिर्फ 17 फीसदी में ही पढ़ने की बुनियादी क्षमता, और गणित तथा विज्ञान की जानकारी पाई गई, जबकि दूसरे राज्य हिमाचल में यह 11 फीसदी निकली।

हम लोग विदेशों में काम कर रहे भारतीयों की उजली सफलता का ग्राफ देखकर यह खुशफहमी पाल बैठते हैं कि हमारे नेता, बाबू भ्रष्ट हों तो हों, हमारी उच्च शिक्षा संस्थाएं अब भी दुनिया की बेहतरीन शिक्षा संस्थाओं से टक्कर लेने में सक्षम हैं। पर कड़वी सचाई यह है कि हमारे यहां तथाकथित साक्षरता दर भले ही बढ़ रही हो, लेकिन शिक्षा का कुल स्तर दिनोंदिन घट रहा है। खूब मोटी तगड़ी फीस वसूलने वाली अधिकतर निजी शिक्षण संस्थाएं भी छात्रों को बेहतर शिक्षा प्रदान करने में अक्षम साबित हुई हैं। नतीजतन देश भर में शिक्षित और कुंठित बेरोजगारों की तादाद बढ़ रही है, दूसरी तरफ उन्नत उपक्रमों और उन्नत तकनीकी तथा प्रबंधन संस्थानों के लोग रो रहे हैं कि संस्थान या उपक्रम बिठा भी लिए, तो उनके लिए अच्छे शिक्षक, प्रशिक्षित कामगार और प्रबंधक कहां से आएं?

दरअसल राजनीतिक वजहों से मनमाने तौर से बढ़ाए जाते रहे आरक्षण, विभागीय भ्रष्टाचार और खुद जनता की, ‘सब चलता है’ वाली चिरंतन भारतीय आदत के चलते दाखिले से लेकर शिक्षक चयन तथा प्रोन्नति तक हर मोरचे पर हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली लचर नजर आती है। और हमारे मुट्ठी भर आईआईटी और आईआईएम सरीखे संस्थानों में दाखिले के लिए तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थान तो नौकरी की घुड़दौड़ का ऐसा सट्टा बन गए हैं, जिनकी मांग और आमदनी सुशिक्षा की जरूरतों के मुताबिक नहीं, बल्कि मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों पर चयनित उनके छात्रों की तादाद के आधार पर बढ़ती-घटती है।

आजादी के बाद हमारे शिक्षाविदों में यकीन था कि हम जैसे पिछड़े हुए बड़ी आबादी वाले देशों में मातृभाषा माध्यम से पढ़ाई कराने वाले सरकारी स्कूल ही विकास का ठोस आधार रच सकते हैं। लेकिन जनभाषा की गलत-सलत राजनीति ने त्रिभाषा या द्विभाषा के उन तमाम फॉरमूलों की भाप निकाल दी। सत्तर के दशक के बाद बदहाल हुई सरकारी शिक्षण संस्थाओं से सिर्फ भाषाई माध्यम वाली पढ़ाई करने वाले लोग अपने बरक्स अंगरेजी माध्यम वाली निजी शिक्षा संस्थाओं के फटाफट अंगरेजी बोलते युवाओं की ऐंठ भरी सफलता से इस कदर कुढ़ गए कि गलत शिक्षा नीतियों के बजाय भारतीय भाषाओं से दुश्मनी पाल बैठे।

हमारे हिंदी लेखकों से लेकर मास्टर, प्रोफेसर, इंजीनियर तो छोड़ें, विभागीय चपरासी तक आज अपने बच्चों को म्युनिसपाल्टी या सरकारी स्कूलों में भेजने से कतराता है। हालत यह हो गई है कि कई दलित नेता कहते हैं कि दलितों के बच्चों को अंगरेजी देवी और मैकाले दत्त शिक्षा प्रणाली ही आगे ले जा सकेगी, हिंदी या भाषाएं नहीं। सरकारी शिक्षा प्रणाली में सुधारों के नाम पर सिर्फ आरक्षण की वकालत करने वाले हमारे राजनेताओं ने शिक्षण माध्यम के मसले पर थोथी क्षेत्रीय नारेबाजी बुलंद की है। उनके अपने बच्चे या तो बाहर से पढ़कर आए हैं या फिर उन उत्तम निजी संस्थाओं से, जहां अंगरेजी न बोलने पर बेंत पड़ते हैं। आज हमारे युवा डॉक्टरों, इंजीनियरों, प्रबंधकों या प्रोफेसरों को तो छोड़िए, हालत यह होती जा रही है कि हिंदी फिल्म या टीवी के सितारों में से भी शायद ही कोई हिंदी या दूसरी भारतीय भाषा में अपने पेशे पर सहज अंतरंगता से संवाद कर सके।

भाषा के मामले में चीन एकदम दूसरे छोर पर है। हमको जहां सही सड़क पर चलने का भी साहस नहीं, इस डर से कि कहीं यह राह गलत न साबित हो, माओवादी सांस्कृतिक क्रांति के बाद चीन कुछ दिन भटका जरूर, पर उसके नेतृत्व का लक्ष्य एकदम साफ था ः हमको एशिया और फिर विश्व की महाशक्ति बनना है। लिहाजा अर्थव्यवस्था के रूपांतर के बरसों में देंग ने व्यावहारिकता पर बल दिया। अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व से जोड़ते हुए चीन ने अब शिक्षा को आधुनिक विज्ञान और तकनीकी प्रशिक्षण से जोड़ा। साथ ही जनता को विश्व व्यवस्था से निपटने योग्य बनाने की दृष्टि से अंगरेजी सिखाने के लिए भी जरूरी इंतजाम किए गए, ताकि स्पर्द्धा में उतरने पर उनको मुंह की न खानी पड़े।

हमारा यह दर्शन कि शिक्षा सबका अधिकार बने और भारतीय भाषाएं हर परिसर में बहें, भले सुंदर हो, लेकिन उसे साकार करने की दिशा में जिस निर्मम संकल्पशक्ति और ईमानदारी की जरूरत थी, उसके अभाव में सार्वजनिक भाषा का जो विषय राष्ट्रीय सपना बन सकता था, कबाड़ा बन गया। चीन की चयनित राह हमारी नजर में भले ही थोथी व सांसारिक हो, पर उसने अपनी तरक्की की उस तसवीर को पूरी दुनिया के लिए एक मर्मस्पर्शी भव्य कविता बनाया, जिसके अभिभूत करनेवाले दर्शन हम सबने ओलंपिक खेलों के दौरान किए।

आज भी एशिया में चीन की टक्कर का महाकाव्यात्मक सपना देखने की क्षमतावाला इकलौता देश भारत ही है। और आज भी कारगर लोकतंत्र, विश्व साहित्य तक सीधी पहुंच और हमको चीन से बेहतर देखने की इच्छा वाले मित्र देशों की दृष्टि से हमारे पास कई प्लस पॉइंट हैं। हमारी खामी यही है कि शिक्षा से लेकर उदारवादी अर्थनीति तक हर मोरचे पर अंततः हम धुन में पिलकर कड़ी मेहनत करने वाले रचनाकार के बजाय स्वप्नदर्शी लफ्फाज ही साबित हो रहे हैं।(साभार-अमर उजाला : २५ दिसम्बर २०११)

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